14 September, 2017

• मज़्‌हब नहीं सिखाता


         प्रातः जागने के क्षण से ही कुमार बेचैन था। उसकी बहुधा शांत देह-भाषा में आया परिवर्तन सेवक भी सुबह की चाय देते क्षण ही जान गया था। यूँ तो समारोह सुबह आठ से प्रारंभ होना था, किंतु अतीत को पुनः जीने की आतुरता ने उसे चैन से बैठने न दिया। नाश्ता किए बिना सात बजे ही साहब पाठशाला पहुँच गए। पहले माले की कक्षा ‘ब’। मेज़, कुर्सी, बेंच, सारी चीज़ें पुरानी ही थीं। बस, काले की जगह हरा बोर्ड; यही मात्र परिवर्तन। दरवाज़े की कुंडी भी पुरानी ही थी। कक्षा में क़दम रखते ही समूचा अतीत कुमार के चारों ओर घूमने लगा।
         प्रसूति पश्चात हुए अतिरक्तस्राव से चंद घंटों के भीतर ही कुमार की माँ का स्वर्गवास हुआ था। माँ के बिछड़ने का घाव निश्चित ही गहरा था, लेकिन धैर्य खोकर लाभ न था। एक आँख में आँसू तो दूजे में केवल शिशु की ख़ातिर बलपूर्वक मुसकुराहट ला, नानी से लेकर सारों ने कमर कसी। सभी परिजनोंने बारी-बारी से शुरू के दो महीने तो चीज़ें सँभाल लीं, लेकिन हर किसी को अपने-अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व भी निभाने थे। अंततः पूरा भार नानी के कंधों पर आ गिरा। पूरी हिम्मत से विपदा का सामना कर, शिशु की मालिश से लेकर अन्य सभी ज़िम्मेदारियाँ नानी ने बड़ी कुशलता से निभाईं; लेकिन उसे भी अन्य लोगों की तरह ही दायित्वों से भला मुक्ति कैसे मिलती? अन्नप्राशन के पश्चात अत्यंत व्यथित हृदय से नानी ने गाँव लौटने का निर्णय लिया। सदानंद का हौसला कुछ डगमगाता देख कुमार की मौसी ने दिन के समय शिशु की देखभाल के लिए किसी महिला को नियुक्त करने की सलाह दी। कुछ जगहों पर संदेश गए। दो दिन पश्चात एक व्यक्ति ने आकर पूछा, “जी, बच्चे को सँभालने के लिए आया चाहिए ऐसा बताया किसीने।” गत दो वर्षों से उसी मुहल्ले में रहने वाले जिस व्यक्ति को सदानंद बस शक्ल से जानता था, उसे देख आश्चर्य करते हुए सदानंद ने कहा, “हाँ, चाहिए तो है .......... नाम?” “जी, मेरा नाम जावेद।” उस व्यक्ति ने कहा। सभी उपस्थितों की तुरंत तनी भौंहों की ओर जावेद का ध्यान आकर्षित होने में देर न लगी। जावेद को मायूस होते देख सदानंद ने कहा, “बाद में बताएँगे।”
        दो दिन काफ़ी सोचने के पश्चात दूसरा कोई व्यक्ति उपलब्ध होने तक सदानंदने जावेद को अस्थायी मंज़ूरी का संदेश भेजा। “जी अच्छा, बहुत मेहरबानी, आज से ही सँभालेंगे।” जावेदने ख़ुश होकर कहा, और तुरंत ही पत्नी के साथ उपस्थित हुआ। जावेद की स्वल्प आमदनी को देखते हुए ख़ुरशीद ने भी सहर्ष ज़िम्मेदारी स्वीकार की। ख़ुरशीद की अपनी कोई संतान न होते हुए वह शिशु को अच्छी तरह सँभाल पाएगी या नहीं यह सोचकर सदानंद चिंतित था। सुबह साढ़े-सात बजे दफ़्तर के लिए चला सदानंद शाम को लौटने तक सदानंद के ही घर में ख़ुरशीद ने शिशु को सँभालना प्रारंभ किया। एक महीने की देखभाल के दौरान शिशु का स्वास्थ्य स्थिर रहता देख सदानंदने कुछ दिन और ख़ुरशीद को ही शिशु की देखभाल जारी रखने के लिए कहा।
        “पहले नज़र उतारो इसकी।” कुमार के पहले जन्मदिन के अवसर पर घर आई नानी ने आँसू पोंछते हुए कहा। “जी वह तो ख़ुरशीद रोज़ उतारती है, आज दोबारा उतार लेगी।” जावेद ने कहा। इस बात की ज़रा भी जानकारी न होने वाले उपस्थितों को आश्चर्य तो हुआ, तनिक शर्मिंदगी भी महसूस हुई। कोई भी आपसी रिश्ता न होते हुए, किसीके सुझाए बिना, नियमित रूप से और अपनेपन से कुमार की नज़र उतारने वाली ख़ुरशीद को सारों ने तुरंत सहर्ष स्वीकृति दी; और उसके ‘पर्मनन्ट’ होने की मुहर लगाई। साथ ही गत कुछ दिनों से मुश्किल वक़्त में कभी-कभार रसोई सँभालनेवाला जावेद ‘फ़ुल-टाइम कुक’ भी बन गया। जन्मदिन के समस्त व्यंजन दोनों ने मिलकर ही पकाए। “बहुत अच्छा खाना बनाया तुम दोनोंने।” नानी ने कहा। “जी।” दोनोंने नम्रता से सराहना स्वीकार की।
         मात्र आमदनी के हेतु से शुरुआत किए ख़ुरशीद और जावेद कुमार से कब घुल-मिल गए, स्वयं उन्हें भी ज्ञात न हुआ। उन दोनों का स्नेहिल व्यवहार और कुमार का लुभावना रूप एक दूसरे के लिए पूरक थे। कभी ख़ुरशीद का स्वास्थ्य अच्छा न हो, तब भी जावेद कुमार की देखभाल सहजता से कर लेता। दोनों के परिश्रमी और समर्पित होने की वजह से सदानंदने भी छुटफुट चीज़ों को छोड़ उन दोनों को स्वतंत्रता दी थी। नानी तथा मौसी नियमित रूप से भेंट करने आतीं। हर भेंट के दौरान कुमार की दृष्टि से विभिन्न पोषक व्यंजनों की पाकविधि ख़ुरशीद नानी से सीख लेती थी। विदा लेते समय दोनों पति-पत्नी तत्परता से नानी के चरण स्पर्श करते। नानी स्वयं के साथ-साथ ख़ुरशीद की भी नम आँखें स्वयं के पल्लू से पोंछती। रिक्षा नज़रों से ओझल होने तक दोनों निश्चल खड़े रहते थे। पहली भेंट में तनी भौंहें क्रमशः पराजित हो रही थीं।
        दिन में जावेदचाचा से ‘मछली जल की’ सीखा कुमार संध्या को बाबा के घर लौटते ही उन्हें जूते भी न खोलने देता; और उनसे लिपटकर बजरंगबली की पूँछवाली कहानी सुनाने का हठ करता। दोपहर ख़ुरशीदचाची के हाथ की बनी खीर भरपेट खाकर रात को बाबा का बनाया पौष्टिक काढ़ा किंतु बेचारा बिना किसी शिकायत के पी जाता। “पहलवान कौन बनेगा?” ऐसा बोल सदानंद बहला-फुसलाकर उसे काढ़ा पीने पर मजबूर करता, और काढ़ा पीने से हुए उसके विचित्र हाव-भाव देख ज़ोर का ठहाका लगाता। हर संध्या, बरामदे के चक्कर लगाते हुए, कुमार को थपकियाँ देकर सुलाना होता था। एक रात स्वयं के कंधे के दर्द की वजह ढूँढ़ते हुए सदानंद को एहसास हुआ, कि जिसे वह अब तक गोद में लेकर सुलाता था, वह ‘शिशु’ पाँच वर्ष का होने चला था। सदानंद ने स्नेहपूर्वक कुमार के केशों में उँगलियाँ फिराईं। दो भिन्न स्पर्शों से मिट्टी एक अनोखा रूप धारण कर रही थी।
         दूसरी सुबह जावेद की काफ़ी प्रतीक्षा करने के बाद सदानंद स्वयं ही कुमार को ले जावेद के घर की ओर निकल पड़ा। यूँ तो वह रोज़ सदानंद के दफ़्तर रवाना होने से पूर्व ही तत्परता से कुमार को ले जाता। जावेद के दरवाज़े का ताला देख सदानंद तनिक चिंतित हुआ। “सुबह तीन बजे ही लेकर गए।” पड़ोसी महिला बोली। सदानंद कुमार को साथ ले तुरंत अस्पताल पहुँचा। जावेद प्रसूतिकक्ष के बाहर खड़ा था। इन दोनों को देख वह दौड़ते हुए निकट आया और सदानंद के हाथ हाथों में ले ख़ुशी से बोला, “बेटी हुई है भाईजान!” सदानंद ने बटुए के ख़ास ख़ाने से दिक़्क़त के मौक़े पर काम आने के हेतु से मोड़कर रखी हुई सौ-सौ की दो नोट निकालीं, और झिझकते जावेद की हथेली में जबरन थमाकर भावुक स्वर में कहा, “और चाहिए तो भी माँग लेना, शरमाना नहीं।” दोनों ने एक-दूसरे को दीर्घ आलिंगन दिया। यह सब देख विस्मित हुए कुमार को जावेदने प्रेम से गोद में उठाते हुए कहा, “छोटी बहन के साथ खेलोगे नं?” जावेद का घर अचानक ढेर सारे मेहमानों से खिल उठा। बेटी ने सबके होठों पर मुसकान लाई थी; इसलिए हेतुतः उसका नाम तबस्सुम रखा गया। सदानंदने सगे भाई की तरह सारी चीज़ें सँभालीं, और समारोह को सकुशल संपन्न करने में तनिक भी कमी न छोड़ी। कुमार को तो एक लुभावनासा खिलौना ही मिल गया था।
        असामान्य आकलनक्षमता और प्रगल्भ बुद्धिमत्ता का वरदान लेकर जन्मा कुमार शैक्षणिक क्षेत्र में सदैव अग्रसर रहा। बुद्धिमत्ता के साथ कठोर परिश्रम की सीख भी पाए कुमार को अत्यधिक कठिन और इसी वजह से सर्वाधिक प्रतिष्ठित मानी गई प्रशासकीय सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण करना मुश्किल न हुआ। नियुक्ति के पश्चात अल्प काल में ही फुरतीले किंतु शांत और सारासार विचारों के व्यवस्थापक के रूप में वह विख्यात हुआ। उसका कामकाज देख, उन्हीं दिनों राज्य के तीन ज़िलों में एक ही समय पर हुए सांप्रदायिक दंगों को नियंत्रित करने के लिए उसे राज्यपाल की ओर से विशेष नियुक्ति के आदेश प्राप्त हुए।
          “सर, प्रिंसिपल मैडम प्रतीक्षा कर रही हैं।” एक विद्यार्थी के कहने पर कुमार चौंककर सावधान हुआ। शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरा और तुरंत मैडम के चरण स्पर्श किए। “यशस्वी भव।” कुमार की इतिहास की शिक्षिका और मौजूदा मुख्याधापिका मैडम ने आशीर्वाद देते हुए कहा। अतिसंवेदनशील बने तीन ज़िलों के दंगों को अत्यंत प्रभावी ढंग से केवल नियंत्रण में लाने तक सीमित न रहकर, एक और क़दम आगे बढ़ाते हुए, दो गुटों में मित्रता प्रस्थापित करवाने का जोखिम भरा काम सफलता से पूर्ण कर कुमार ने समाज में एक अनूठा संदेश पहुँचाया था। उसके इस कार्य के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति ऐसे दोहरे पुरस्कार उसे घोषित हुए थे। उसकी विशेष नियुक्ति दो जुदा हाथों से सँवरे कुमार के लिए संस्कारों का पुनःपठन ही साबित हुई। जिन दो शिक्षाओं ने उसे सौहार्द की परिभाषा सिखाई, उन्हीं को उसने एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी होते हुए देखा था। अनुशासित और आज्ञाकारी कुमारने कभी-कभार शिक्षकों की छड़ी का स्वाद भी चखा था; किंतु उसको हुआ ताड़न उसे सख़्त और सरल मार्गों का उचित अवलंबन सिखा गया। घातक तत्त्वों को नेस्त-नाबूद करने के लिए उसने सख़्त क़दम उठाए, किंतु राह भटके लोगों के लिए वह एक संवेदनशील मार्गदर्शक बन खंबीरता से डटा रहा। हेतुतः दंगे करवाकर रोटियाँ सेंकनेवाले सत्तालोलुप तत्त्वों को उसने जाल बिछाकर बड़ी कुशलता से धर दबोचा। प्रशासकीय सेवा में नियुक्त होने वाले तो कई होते हैं, लेकिन कुमार की समर्पितता ने उसकी नियुक्ति में चार चाँद लगा दिए थे। जिस विद्यालय में उसका व्यक्तित्व विकसित हुआ, उसी पावन वास्तु के प्रांगण में आज उसके सत्कार का भव्य समारोह था। अतीत का स्मरण हो वह बार-बार भावुक हो रहा था। भाषण भी उचित रूप से पढ़ पाएगा या नहीं इस बात को सोच वह शंकित था। जिसने माथे पर मातृ-वियोग लिखने में शीघ्रता की, उसीने कुमार के ललाट पर अखंड धैर्य गढ़ने की तत्परता भी दिखाई थी। तुरंत स्वयं को सँभाल कुमार समारोह के लिए सज्ज हो गया।
      सराहना और स्नेह से ओत-प्रोत समारोह में कुमार का समुचित सत्कार संपन्न हुआ। कुमार के भाषण के पश्चात विद्यार्थियों के एक समूह ने धार्मिक एकता पर आधारित विख्यात गीत गाना प्रारंभ किया, और प्रथम पंक्ति में बैठे नानी, मौसी, बाबा, ख़ुरशीदचाची, जावेदचाचा और तबस्सुम इन सारों की आँखें नम हो उठीं। कुछ ने पोंछीं, तो बाक़ी सारों ने खारे पानी को मुक्त कर दिया। कुमारने जूते का फ़ीता कसने के बहाने नीचे झुककर स्वयं के आँसू पोंछे। गत कई वर्षोंसे इन सभी के माध्यम से धर्म ने कभी आयत सुनी थी तो कभी कीर्तन श्रवण किया था। जो धर्म शीर-ख़ुर्मा चखकर तृप्त हुआ, वही तीर्थ की बूँद मात्र से कृतार्थ भी हुआ था। कल नानी के पल्लू से तो आज चाची की चुन्नी से उसने आँसू पोंछे थे। कभी वह चाचा की दिखाई आँखों से सहमा, तो कभी बाबा से रूठकर मौसी की गोद में जा छिपा। उस विशाल प्रांगण में विभिन्न भाषाओं में धर्म की विविध व्याख्याओं को लिखकर दिखा पाने वाले कई थे; किंतु धर्म की वास्तविक परिभाषा इन्हीं चुनिंदा नम आँखों ने जी, जानी और जीवंत रखी थी। आज पुनः एक बार वस्तुतः धर्म स्नेह-स्नात हो धन्य हुआ था।
■ हिंदी दिवस

(स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इसी ब्लॉग पर प्रकाशित मराठी काल्पनिक कथा का हिंदी अनुवाद)
(मूल मराठी कथा पढ़ने हेतु लिंकः https://jsrachalwar.blogspot.com/2017/08/blog-post_15.html)
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05 September, 2017

• क्षम्यताम् परमेश्वर


          रेल्वे ची भीषण दुर्घटना आणि तथाकथित बाबाच्या अटकेविरोधात उसळलेल्या डोंबाने झालेले श्रींचे स्वागत हृदयावर आघात करून गेले. खरे पाहता अशा अप्रिय घटना ही सांप्रत नियमितताच झाली आहे. म्हणूनच की काय त्यांच्याकडे बघण्याचा आपला दृष्टिकोन देखील जरा बोथटच झाला आहे. इतर वेळी अल्प काळ अस्वस्थ करणार्‍या अशा घडामोडी मंगल प्रसंगी मात्र प्रकर्षाने चटका लावून जातात. आगमनाच्या दिवशीच गालबोट लागल्याचे पाहून मन खजील झाले आणि नकळत मुखातून ‘क्षम्यताम् परमेश्वर’ निघाले.
          रेल्वे असो अथवा आस्था, बारकाईने बघता भारतात प्रत्येक क्षेत्र बिकट पेचात असल्याचेच जाणवते. कुठल्या आघाडीवर पहिली मोहीम आखावी हेच कळेनासे झाले आहे. वर्षानुवर्ष राबवलेल्या हलगरजी व गाफील धोरणांमुळे भ्रष्टाचार एखाद्या चिवट वृक्षाप्रमाणे आपली पाळेमुळे घट्ट रोवून बसलाय. मुळांच्या शिरकावाने पोखरलेल्या भिंतींना भगदाडे पडणारच आणि घरात पलीकडील उपद्रव शिरणारच. त्या उपद्रवाशी दोन हात करताना कामी आलेल्यांचे तपशील अंगावर शहारे आणतात. जेवढे संतत हौतात्म्य, तेवढेच सातत्य त्यांच्याबद्दलच्या अनास्थेतही पाहून मन विषण्ण होते. दुरून साजर्‍या दिसणार्‍या पारंब्यांच्या विळख्यात देश कासावीस होतोय. राजकारण, अर्थकारण आणि धर्मकारण यांच्या घट्ट वीणेच्या पाशात राष्ट्राचा श्वास गेली कित्येक वर्ष गुदमरतोय. प्रत्येक क्षेत्रात खोलवर रुजलेली अनागोंदी व अंदाधुंदी पाहून संताप येतो; पण तोंड दबलेलेच राहू देऊन बुक्क्यांचा मार सहन करण्यापलीकडे काहीच करता येत नाही. अभिव्यक्ती-स्वातंत्र्याचे धिंडवडे निघालेल्या राष्ट्राचे भवितव्य सुज्ञास सांगणे न लगे.
          पण ह्या सगळ्या औदासीन्यात श्रींचे आगमन नेहमी ‘सुखदायक भक्तांंसी’ असेच असते. मूर्तीची निवड ते आरास, रांगोळी, मखर, सजावट, नैवेद्य इत्यादी गोष्टींच्या गराड्यात काही काळ का होईना, दुःख जरा विरळ होते; क्वचित विसरही पडतो. आचमनाचे गोविंदाय नमः म्हणताच निराळा हुरूप येतो. रक्ष रक्ष परमेश्वर म्हणत विघ्नहर्त्याला साकडे घालताना आचरणात आजही आगळीच निरागसता येते. लंबोदराचे लोभस रूप पाहून किती साठवू लोचनी म्हणत मी दर वर्षी अतृप्तच राहतो. कर जोडून मुखाने पुण्योऽहम् तव दर्शनात् म्हणेपर्यंत आज देखील ब्रह्मानंदी टाळी लागते; आणि विसर्जनाचे मोरया म्हणताना अजूनही दाटूनच येते.
          दर वर्षी ढोल-ताशांच्या कर्णमधुर कल्लोळात गणराय वाजतगाजत येतात आणि दहा दिवस अनंत उत्साह भरून निरोपाच्या घडीला नयनी पूरही आणतात. त्यांनी मुक्तहस्ते वाटलेल्या सद्बुद्धीस काही भद्रजन सश्रद्ध ग्रहण करतात; म्हणूनच सध्या सुरु असलेल्या अखंड रणधुमाळीतही देश समाधानाचे चार श्वास घेऊ शकतो. सातत्याने होत असलेल्या प्रचारामुळे कर्मठ लोकांनी देखील प्रदूषण कमी करण्याच्या हेतुने विसर्जनाच्या सुधारित पद्धती अवलंबिणे ही गजाननाने दिलेल्या सद्बुद्धीची झलकच म्हणावी लागेल. पर्यावरण स्वच्छ राखण्याच्या दृष्टीने होत असलेल्या प्रयत्नांना मन आणि बुद्धी निर्मळ करण्याच्या इच्छाशक्तीचीही साथ लाभली, तर गणनायकाच्या प्रसादाचा गोडवा काही औरच असेल.

आवळ तव पाश आता, करिण्या काळ पातकाचा,
लागो अंकुश अधमावर, तीक्ष्ण तुझ्या बुद्धीचा,
व्हावा मोदकापरी मधुर, शब्द तो सकळ जनांचा,
होवो भद्र गणांचे, नायक असे तू ज्यांंचा।

कंठ दाटला स्मृतींनी, ठोका चुकला काळजाचा,
जातो हुरहुर लावुनी, सहवास औट घटकांचा,
किती रे लपवावा आम्ही, ओलावा त्या कडांचा,
लवकर परत रे बाप्पा, धीर सुटत असे आमुचा।

■ गणेशोत्सव
(Select lines from my Marathi poetry book)
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