05 September, 2018

• आप ही से


    कई वर्ष बाद उसे बक्से से बाहर निकाला था। सावधानी व नज़ाकत से हर कोना, पट्टी, चाबी साफ़ कर, नमन कर उँगली रखी, तो निकले सुर से रोम-रोम पुलकित हो उठा। जैसी-जैसी उँगलियाँ घूमने लगीं, हार्मोनियम से सुर तो निकलने लगे; किंतु लय और धुन खो गई थीं। लगातार कोशिशों के बाद जब हार गया, तब अचानक कुछ याद आया; और सहज ही दाहिने हाथ के अँगूठे व तर्जनी से मैंने कान को चिकोटी काटी। “जब भी घमंड सिर पर सवार हो, तब स्वयं ही कान खींच लेना; अपने आप भूमि पर लौटोगे।” मेरे तबला गुरु की करारी सीख ने मुझे सँवार लिया।
    दसवीं कक्षा तक तबला की तअलीम पाने के पश्चात पढ़ाई के बढ़ते बोझ से तअलीम व रियाज़ पहले कम, और बाद में बंद हो गए। ताल से रिश्ता तो था ही; लेकिन सुरों से नाता जोड़ने की तमन्ना शेष थी। सेना में कार्यरत होते ही एक हार्मोनियम ख़रीदी, और हर छुट्टी में गुरुजी से सुरों की भी तअलीम पाना आरंभ किया।
    कान की चिकोटी का दर्द बरक़रार था। अगली छुट्टी मिलते ही गुरुजी से भेंट करने पहुँचा। गुरुजी के चरण स्पर्श किए। गुरुजी ने मेरे दोनो कंधे जकड़कर मुझे उठाते हुए पुरानी धारदार वाणी में कहा, “पूरी श्रद्धा से रियाज़ करो, गीत आप ही निकल आएँगे।” मैंने गर्दन हिलाकर आज्ञा स्वीकार की। धन्य वह गुरु, जो बिना कुछ सुने ही शिष्य को भाँपे। मैं भी ऐसा शिष्य बन धन्य हूँ, जो मीलों दूर गुरुजनों के स्मरण मात्र से नम्र होता है।

अक्षर पहला सीखा आपसे, सीखा कब क्या लिखें, न लिखें,

सीखा अक्षर बोलें कैसे, यह भी सीखा मौन कब रहें,
दाएँ सीखा, बाएँ सीखा, सीखा ध्यान बस पूर्ण में रखें,
स्वाभिमान से उठना सीखा, यह भी सीखा झुके कब रहें।

■ Teachers’ Day
(Select lines from my Hindi poetry book)
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