30 August, 2019

• मुट्ठी भर अनाज


    एक लंबे अरसे से किसानों की आत्महत्याओं ने देश के समक्ष बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न निर्माण कर दिया है। भ्रष्टाचार के अनेक पहलुओं में से ‘जागृति’ में तो केवल एक का वर्णन था। किसानों की समस्या भी भ्रष्टाचार का ही एक अहम्‌ पहलू है। सहस्रों करोड़ों की योजनाओं के घोटाले से विपुल इस देश में, कुकर्मियों ने अन्न की उपज तक को नहीं बख़्शा। विशेषज्ञों की राय में भविष्य का संघर्ष अन्न व जल के लिए ही होगा। हमारे देश की कृषि और किसानों की दयनीय स्थिति देखकर तो यह राय सत्य प्रतीत होती है। जो भी इस दुष्कृत्य में शामिल हैं वे शायद यह नहीं जानते, कि अन्न व जल के बिना न तो सत्ता और न ही ऐश्वर्य का कोई अस्तित्व है।
    हमारे देश की लगभग प्रत्येक समस्या की जड़ भ्रष्टाचार या हमारी संवेदनशून्य और बधिर प्रवृत्ति है। अत्यंत भीषण गरीबी में जीवन व्यतीत करते किसानों को खिलखिलाते खलिहानों में मुसकाते देखने हेतु न जाने और कितनी प्रतीक्षा करनी होगी।

कुछ तो हो तकनीक सुदृढ़, उपज भूमि की बढ़ाए,
योजना कुछ हो सफल अब, गंगा हर अब द्वार आए,
कुपित सृष्टि हो तो कोई, मदद के कुछ कर बढ़ाए,
बलि की संतानें ज़िंदा, रहें ऐसा प्रण बनाएँ।

Pola (A bull-worshipping festival)

(Select lines from my Hindi poetry book)

(Primarily a farmer’s festival of Maharashtra, ‘Pola’ is celebrated in some areas of Chattisgarh and Telagana too. Being backbone of Indian farming since ages and even today, bulls are worshipped every year on this auspicious new moon day of ‘Shraavan’ month of Hindu calendar.)
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23 August, 2019

• कहाँ हो तुम कृष्ण


     ‘कृष्ण’ से जुड़ी कहानियाँ तो बचपन से सुनता आया हूँ। कभी नटखट, कभी बहादुर, कहीं सलीम, तो कहीं रूठे; न जाने कितनी सूरतों में कृष्ण को पढ़ा और सुना। बचपन में सीधे मअने से ही देखता, इसलिए सारी कहानियाँ दिलकश लगती थीं। उम्र के साथ बढ़ती सोच ने यह एहसास कराया, कि हर कहानी महज़ तफ़्रीह नहीं, बल्कि दुनियवी लौस-ए-दुनिया को समझाता एक ख़ूबसूरत किताबचा है। तशद्दुद, तानाशाही और मन्फ़ी से आलूदा मौजूदा दौर में इन कहानियों के असल मअने समझना लाज़िमी है। कृष्ण ने भी तशद्दुद के तेवर अपनाए, मगर महज़ मन्फ़ी को हलाक करने की ख़ातिर। उन्होंने बेशक ज़नाँ को चिढ़ाया, मगर उस चिढ़ाने को अनचाही सूरत में तब्दील नहीं होने दिया। यही वजह थी, कि कृष्ण ने हज़ारों बेबस जनाँ की हिफ़ाज़त भी की। आज ज़नाँ तो क्या, हर मासूम, हर इन्सान ख़ौफ़ में जीने पर मजबूर है। वक़्त आ चुका है, कि हममें से हर शख़्स कृष्ण की ज़िहनियत के पहलुओं को ख़ुद में ढाले; वर्ना हमारा मुस्तक़्बिल यक़ीनन् मौजूदा हाल से भी तारीक होगा।

तुम्हें महज़ पुकार कर सँभले थे, परख़चे मज़्‌रूह इस्मत के,
तुम्हारे बस तसव्वुर से ही, धीरज रहे थे पांचाली के,
आज पशेमाँ है इन्सानियत, ग़ालिब हैं तेवर ग़ैर-मुहज़्ज़ब के,
ख़ौफ़नाक मौजूदा हालात, मुन्हदिम१० हवासिल११ ज़नान के.

वहशी लगा ही रहे हैं ठहाके, आबरूरेज़ी१२ सरे आम कर,
न ज़न बेख़ौफ़ रही न बचपन, न ज़र१३ महफ़ूज़ न ज़ेवर,
क़ादिर-ए-मुतलक़१४ कैसे मानें तुम्हें, ख़ामोश हो बावजूद सब जानकर,
क्या वाक़िई खो गए हो कृष्ण, या क़स्दन्१५ बैठे हो छिपकर.

■ जन्माष्टमी
(Select lines from my Hindi-Urdu poetry book)

(१-entertainment, २-worldly traps of illusion world, ३-violence, ४-negativity, ५-nature, ६-dark, ७-honour, ८-imagination, ९-uncouth, १०-shattered, ११-courage, १२-disgrace, १३-wealth, १४-most powerful, १५-purposely)
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15 August, 2019

• स्वतंत्र


असत्य फोफावले वावरात, सत्य उकिरड्यावर नासले,
भयभीत रम्य बालपण, केवळ जाहिरातीत हसले,
बीभत्स नागव्या लीलांनी, शील प्रत्येक चिरडले,
अनागोंदीच्या ज्वाळांंत, उपवन होरपळून गेले।

उल्लास का करावा, श्वास जे कोंडती फुलांचे,
पदन्यास गुलाम झाले, बेबंदशाहीच्या बेड्यांचे,
सुज्ञ शहारले ऐकून, पडसाद अराजकतेचे,
प्राण कंठाशी आले, स्वतंत्र बालगुलाबाचे।
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04 August, 2019

‘गीली हथेली’


     शालेय जीवन से इन्टर्नशिप पूर्ण होने तक कई मित्र हुए, किंतु इन्टर्नशिप के पश्चात मित्रों से भेंट कम ही होती थी। एक विचित्र सा ख़ालीपन महसूस होने लगा। पत्र भेजता, तो उनमेंसे कुछ ही जवाब लिखते। धीरे-धीरे सारे मित्र व्यस्त हो गए। दोनों ओर के पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक और व्यक्तिगत कारणों से संपर्क लगभग ख़त्म हो गया। मित्रों की बहुत याद आती। बीते वर्षों और वर्तमान की तमाम बातें किसीसे कहने का मन होता; किंतु दूरियाँ कुछ ऐसी बन गई थीं, कि कह न पाया। ई-मेल, फ़ेसबुक इत्यादि से तकनीकी रूप से तो सारे क़रीब आ गए थे; परंतु भावनात्मक दूरियाँ वैसीही रह गईं। एक दिन औपचारिकता की सारी बेड़ियाँ तोड़कर सोचा, कि पुराने दिनों की तरह ख़त ही लिख दूँ मित्र को। फिर क्या था; क़लम उठाया, तो सारा सैलाब ही काग़ज़ पर उतर आया।
     मित्र और मित्रता की परिभाषा एक ही रहेगी; फिर युग कृष्ण-सुदामा का हो, या थ्री इडियट्स का।

मेरी आँखों से बहे खारे पानी से,
तुम्हारी हथेली आज भी गीली है,
ज्वर में लिपटा था कभी जिससे,
तुम्हारे सीने की चादर क्या अभी भी गर्म है?
दर्द में कसकर पकड़ी थी मेरी कलाई तुमने,
उसपर सुर्ख़ निशाँ आज भी हैं,
दिलो-दिमाग़ पर खींचीं असंख्य रेखाएँ तुमने,
आज बेमिसाल चित्र बन चुकी हैं।

 Friendship Day
(Select lines from my Hindi poetry book)
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