09 December, 2017

• होमी व्यारावाला


क़ैद हुई हर अदा-ए-ख़ास, आपकी माहिर अक्कासी में,
नक़्श बन वह तस्वीरें बस गईं, तमाम दिल-ए-‘जवाहर’ में,
हुए मुलव्वन पल-ए-माज़ी वह सारे, रंग सियाह-ओ-सफ़ेद में,
आपकी शख़्सियत मिसाल-ए-तहसीन आज भी, बसारत-ए-मुआशरा में.
■ Homai Vyarawalla’s 104th birthday
(Homai Vyarawalla was India's first woman photojournalist.)

(अदा-ए-ख़ास-mannerisms of famous, अक्कासी-photography, नक़्श-impression, दिल-ए-‘जवाहर’-heart of gem like people, मुलव्वन-colourful, पल-ए-माज़ी-past moment, सियाह-ओ-सफ़ेद-black & white, मिसाल-ए-तहसीन-example of admiration, बसारत-ए-मुआशरा-view of society)
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22 November, 2017

‘रुख्माबाई राऊत’


विजय तुझा होणेच होते, तनया तू ‘जयंती’ची,
मायेचा खंबीर आधार, ‘सख्या’ची साथ ही मोलाची,
अनामिकाच राहून उघडलीस, कवाडे संकीर्ण मनांची,
धन्य तुझ्या लढ्याने, इंच-इंच न्यायगृहाची।
कणखर तू, संयमी, साहसी, खाण तू धैर्य जिद्दीची,
साता समुद्रापारही फडकली, निशाणे अतुल प्रतिभेची,
झुगारले ऐश्वर्य सकळ, करिण्या सेवा मायभूची,
ललनांची प्रेरणा तू, अस्मिता अनुपम राष्ट्राची।
रुख्माबाई राऊत यांचा १५३ वा वाढदिवस
(Rukhmabai Raut is best known for being one of the first practicing women doctors in colonial India as well as being involved in a landmark legal case involving her marriage as a child bride.)
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14 November, 2017

‘सूराख़-ए-सुकून’


यूँ तो बेचैन रहता हर शख़्स-ए-मुआशरा, ख़ौफ़-ए-सूराख़ से,
मगर जाविदाँ हुआ लफ़्ज़-ए-सफ़हा हर, तुमने नवाज़े सादा सूराख़ से,
कहीं मुसकान पढ़ पल-ए-माज़ी, कोई रोया दस्तावेज़-ए-वफ़ात से,
हर शोअबा-ए-ज़िंदगी आबाद, तुम्हारे हुनर-ए-‘सूराख़’ से.
■ 131st anniversary of the ‘Hole Puncher’
(Select lines from my Hindi-Urdu poetry book)
(सूराख़-ए-सुकून-defect of satisfaction, शख़्स-ए-मुआशरा-individual from society, जाविदाँ-immortal, लफ़्ज़-ए-सफ़हा-word from page, पल-ए-माज़ी-past, दस्तावेज़-ए-वफ़ात-documents of death, शोअबा-ए-ज़िंदगी-section of life, हुनर-ए-‘सूराख़’-art of creating defect)
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07 October, 2017

• बेगम अख़्तर


तनहाई भी हुई बेनज़ीर, सदा-ए-मलिका-ए-ग़ज़ल से,
जहाँ-ए-मूसीक़ी है रोशन, आफ़ताब-ए-दादरा से,
मुतमइन बज़्म-ए-मुम्ताज़, आब-शार-ए-ठुमरी से,
है गूँजता हिंदोस्ताँ आज भी, तरन्नुम-ए-‘अख़्तरी’ से.

■ यौम-ए-विलादत

(ख़िराज-ए-तहसीन)

(१-unique, २-sun of Dadra, ३-assembly of distiguished, ४-melody of Akhtari ‘maiden name of Begum Akhtar was Akhtaribai Faizabadi', ५-birthday, ६-tribute)
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02 October, 2017

‘आता कसं सांगू बापू तुमाले’


गाड्या हाटेलं बुक झाले सरवे, पाय ठेवाले जागा नाइ उरली,
गुरवारच्याच रात्री सारायनं, समदी यवस्था करून ठेवली,
ब्यागा भरून दारातंच मांडल्या, आफिस सामोरंच गाडी लागली,
सारायची खुशी उतू गेली काउन का जयंतीची सुट्टी रईवारले जोडून भेटली,
बरं झालं का लई आधीच, तुमी वरतं निंगून गेले,
जमलं नसतं तुमच्याच्यानं, आजचा गोंधड बगाले समजाले,
आंधळे जात्यावर दळूनंच राहले, कुत्रे पीठ खाऊनंच राहले,
आज का का हून राहलं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
तुमच्या लेखनी नं सुताच्या धाकानं, गोरे चाल्ले गेल्ते भेऊन,
पन जाताना हात बी जोडले, तुमच्या खर्‍याची जादू बगून,
त्यायनं त्यायचा देश घडंवला, डोंगर खर्‍याखर्‍याचा रचून,
आमी आमचंच दिवाळं फुकलं, खोट्याखोट्या तंद्रीत र्‍हाऊन,
लोकाजवडं झाकाले कापडं नाई, म्हनून तुमी बी सादेच राहले,
आज दुसर्‍याले उघडं पाडते, लोकं सवताचे पापं झाकाले,
खाऊन पिऊन बी तोंड आमचं वाकडं, लाखाचं नेसून येते रडाले,
शिकवनीचं तुमच्या गाठोडं बांधलं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
गोर्‍यानं परिषद भरवली त्याले, तुमी पंचाच नेसून गेल्ते,
तुमाले तशा अवतारात बगून, घोंगडीत बी गोरे कुडकुडले व्हते,
आज मोठ्या घरातलं पावनं, येकाच कापडात गुमान राहते,
उधारीचे कापडं घडीघडी बदलू, झोपडीतला सोंगाड्या मिजास दाखवते,
झोपडीच्या छपराचे शेद्रं सरवे, दिसूनंच जाते मोठ्या पावन्याले,
थो बी मंग लई इतरते, सोंगाड्याचे लेकरं धरून वेठीले,
सोंगाड्यानं देल्लं वार्‍यावरतं सोडून, कोटं जावं लेकरानं पोट भराले,
उघडे नं पोरके झाले लेकरं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
पइले तुमच्या येकट्याच्याच उपासानं, घाम सुटून जाय गोर्‍याले,
आज उपाशी लेकराइचा कल्ला बी, ऐकाची फुरसत नाइ कोनाले,
तुमी सरवे तुकडे जवडं आनले, सोबत घेऊघेऊ जोडलं सारायले,
आज करूकरू तुहं नं माहं, सारायनं वाटून टाकलं देशाले,
खुर्चीसाठी समदे पगले व्हते, कमी नाइ करंत मारा कापाले,
वावरात कास्तकार मेले कित्ती गी, डोळे कोनाचेच व्हंत नाइ वले,
कोनाचंच काडिज हालंत नाइ जर्रा, जवान किती बी रगंत न्हाले,
मानसाले मानुस पारखं झालं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
तुमी म्हनलं का सहन करा, पन किती करा हे नाइ बोलले,
काटा काट्यानंच काढा लागते, हे बी शिकवनं इसरून गेले,
पइले व्हतं ते गोर्‍याइनं लुटलं, आज आपलेच लुबाडुन राहले,
तवा बोलाची सोय नव्हती, आज बी भेवंच लागते सांगाले,
बगन्या ऐकन्या बोलन्या सोबत, करू बी नका वाईट सांगाले,
तिघा वानरासोबत चवथा, बसवाले तुमी भुलुनंच गेले,
त्याच चवथ्याच्या मस्ती तंद्रीनं, काडी लावली सारायच्या घरट्याले,
पुरं जंगल भाजूभाजू करंपलं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
सारायचे खिसे वलेवले गच्चं, पन माह्या पिकाले थेंब नाइ जिरला,
किरकेटच्या डावाले पाटातलं पानी, वाटूवाटू डाव माहाच संपून गेला,
सरवे मेट्रो नं बुलेटच्याच मांगं, जुन्या पटरीले वालीच नाई उरला,
गोटे रंगूरंगू दीस गेला संपून, गटारं झाकाले वेळंच नाइ भेटला,
जो बी येते थो हेच म्हनते, का थोच आता तारंल सारायले,
समदे मडके घेऊन पसार होते, बाकिच्याले लाउन उकरडे फुकाले,
कोनाच्या जवडं गार्‍हानं गावं, समजूनंच नाइ राहलं कोनाले,
सारायनंच झोपेचं सोंग घेतलं, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
पन आता भेउन चालनार नाइ, धरावाच लागंन खर्‍याचा रस्ता,
घर सावडाले तुमी लिवलं, तस्संच वागा लागंन आता,
घरच्याच मातीच्या इटा उभ्या करून, पावन्याले झुकवा लागंन आता,
मातीतनं धूर सोन्याचा काढाले, लोकालेच नळी फुका लागंन आता,
ह्या पंचाइतीत नुस्कानीचा मार, झेलाच लागंन थोडाथोडा सारायले,
आमाले काइ नाइ भेटलं तरी, लेकराले तं मिळंल चांगलं भोगाले,
आमचं आमालेच निस्तरा लागते, म्हनून सांगनारंच नव्हतो तुमाले,
पन राहवलंच नाइ सांगितल्या बिगंर, आता कसं सांगू बापू तुमाले.
(गांधी जयंती)
(वर्‍हाडी अभिवादन)
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14 September, 2017

• मज़्‌हब नहीं सिखाता


         प्रातः जागने के क्षण से ही कुमार बेचैन था। उसकी बहुधा शांत देह-भाषा में आया परिवर्तन सेवक भी सुबह की चाय देते क्षण ही जान गया था। यूँ तो समारोह सुबह आठ से प्रारंभ होना था, किंतु अतीत को पुनः जीने की आतुरता ने उसे चैन से बैठने न दिया। नाश्ता किए बिना सात बजे ही साहब पाठशाला पहुँच गए। पहले माले की कक्षा ‘ब’। मेज़, कुर्सी, बेंच, सारी चीज़ें पुरानी ही थीं। बस, काले की जगह हरा बोर्ड; यही मात्र परिवर्तन। दरवाज़े की कुंडी भी पुरानी ही थी। कक्षा में क़दम रखते ही समूचा अतीत कुमार के चारों ओर घूमने लगा।
         प्रसूति पश्चात हुए अतिरक्तस्राव से चंद घंटों के भीतर ही कुमार की माँ का स्वर्गवास हुआ था। माँ के बिछड़ने का घाव निश्चित ही गहरा था, लेकिन धैर्य खोकर लाभ न था। एक आँख में आँसू तो दूजे में केवल शिशु की ख़ातिर बलपूर्वक मुसकुराहट ला, नानी से लेकर सारों ने कमर कसी। सभी परिजनोंने बारी-बारी से शुरू के दो महीने तो चीज़ें सँभाल लीं, लेकिन हर किसी को अपने-अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व भी निभाने थे। अंततः पूरा भार नानी के कंधों पर आ गिरा। पूरी हिम्मत से विपदा का सामना कर, शिशु की मालिश से लेकर अन्य सभी ज़िम्मेदारियाँ नानी ने बड़ी कुशलता से निभाईं; लेकिन उसे भी अन्य लोगों की तरह ही दायित्वों से भला मुक्ति कैसे मिलती? अन्नप्राशन के पश्चात अत्यंत व्यथित हृदय से नानी ने गाँव लौटने का निर्णय लिया। सदानंद का हौसला कुछ डगमगाता देख कुमार की मौसी ने दिन के समय शिशु की देखभाल के लिए किसी महिला को नियुक्त करने की सलाह दी। कुछ जगहों पर संदेश गए। दो दिन पश्चात एक व्यक्ति ने आकर पूछा, “जी, बच्चे को सँभालने के लिए आया चाहिए ऐसा बताया किसीने।” गत दो वर्षों से उसी मुहल्ले में रहने वाले जिस व्यक्ति को सदानंद बस शक्ल से जानता था, उसे देख आश्चर्य करते हुए सदानंद ने कहा, “हाँ, चाहिए तो है .......... नाम?” “जी, मेरा नाम जावेद।” उस व्यक्ति ने कहा। सभी उपस्थितों की तुरंत तनी भौंहों की ओर जावेद का ध्यान आकर्षित होने में देर न लगी। जावेद को मायूस होते देख सदानंद ने कहा, “बाद में बताएँगे।”
        दो दिन काफ़ी सोचने के पश्चात दूसरा कोई व्यक्ति उपलब्ध होने तक सदानंदने जावेद को अस्थायी मंज़ूरी का संदेश भेजा। “जी अच्छा, बहुत मेहरबानी, आज से ही सँभालेंगे।” जावेदने ख़ुश होकर कहा, और तुरंत ही पत्नी के साथ उपस्थित हुआ। जावेद की स्वल्प आमदनी को देखते हुए ख़ुरशीद ने भी सहर्ष ज़िम्मेदारी स्वीकार की। ख़ुरशीद की अपनी कोई संतान न होते हुए वह शिशु को अच्छी तरह सँभाल पाएगी या नहीं यह सोचकर सदानंद चिंतित था। सुबह साढ़े-सात बजे दफ़्तर के लिए चला सदानंद शाम को लौटने तक सदानंद के ही घर में ख़ुरशीद ने शिशु को सँभालना प्रारंभ किया। एक महीने की देखभाल के दौरान शिशु का स्वास्थ्य स्थिर रहता देख सदानंदने कुछ दिन और ख़ुरशीद को ही शिशु की देखभाल जारी रखने के लिए कहा।
        “पहले नज़र उतारो इसकी।” कुमार के पहले जन्मदिन के अवसर पर घर आई नानी ने आँसू पोंछते हुए कहा। “जी वह तो ख़ुरशीद रोज़ उतारती है, आज दोबारा उतार लेगी।” जावेद ने कहा। इस बात की ज़रा भी जानकारी न होने वाले उपस्थितों को आश्चर्य तो हुआ, तनिक शर्मिंदगी भी महसूस हुई। कोई भी आपसी रिश्ता न होते हुए, किसीके सुझाए बिना, नियमित रूप से और अपनेपन से कुमार की नज़र उतारने वाली ख़ुरशीद को सारों ने तुरंत सहर्ष स्वीकृति दी; और उसके ‘पर्मनन्ट’ होने की मुहर लगाई। साथ ही गत कुछ दिनों से मुश्किल वक़्त में कभी-कभार रसोई सँभालनेवाला जावेद ‘फ़ुल-टाइम कुक’ भी बन गया। जन्मदिन के समस्त व्यंजन दोनों ने मिलकर ही पकाए। “बहुत अच्छा खाना बनाया तुम दोनोंने।” नानी ने कहा। “जी।” दोनोंने नम्रता से सराहना स्वीकार की।
         मात्र आमदनी के हेतु से शुरुआत किए ख़ुरशीद और जावेद कुमार से कब घुल-मिल गए, स्वयं उन्हें भी ज्ञात न हुआ। उन दोनों का स्नेहिल व्यवहार और कुमार का लुभावना रूप एक दूसरे के लिए पूरक थे। कभी ख़ुरशीद का स्वास्थ्य अच्छा न हो, तब भी जावेद कुमार की देखभाल सहजता से कर लेता। दोनों के परिश्रमी और समर्पित होने की वजह से सदानंदने भी छुटफुट चीज़ों को छोड़ उन दोनों को स्वतंत्रता दी थी। नानी तथा मौसी नियमित रूप से भेंट करने आतीं। हर भेंट के दौरान कुमार की दृष्टि से विभिन्न पोषक व्यंजनों की पाकविधि ख़ुरशीद नानी से सीख लेती थी। विदा लेते समय दोनों पति-पत्नी तत्परता से नानी के चरण स्पर्श करते। नानी स्वयं के साथ-साथ ख़ुरशीद की भी नम आँखें स्वयं के पल्लू से पोंछती। रिक्षा नज़रों से ओझल होने तक दोनों निश्चल खड़े रहते थे। पहली भेंट में तनी भौंहें क्रमशः पराजित हो रही थीं।
        दिन में जावेदचाचा से ‘मछली जल की’ सीखा कुमार संध्या को बाबा के घर लौटते ही उन्हें जूते भी न खोलने देता; और उनसे लिपटकर बजरंगबली की पूँछवाली कहानी सुनाने का हठ करता। दोपहर ख़ुरशीदचाची के हाथ की बनी खीर भरपेट खाकर रात को बाबा का बनाया पौष्टिक काढ़ा किंतु बेचारा बिना किसी शिकायत के पी जाता। “पहलवान कौन बनेगा?” ऐसा बोल सदानंद बहला-फुसलाकर उसे काढ़ा पीने पर मजबूर करता, और काढ़ा पीने से हुए उसके विचित्र हाव-भाव देख ज़ोर का ठहाका लगाता। हर संध्या, बरामदे के चक्कर लगाते हुए, कुमार को थपकियाँ देकर सुलाना होता था। एक रात स्वयं के कंधे के दर्द की वजह ढूँढ़ते हुए सदानंद को एहसास हुआ, कि जिसे वह अब तक गोद में लेकर सुलाता था, वह ‘शिशु’ पाँच वर्ष का होने चला था। सदानंद ने स्नेहपूर्वक कुमार के केशों में उँगलियाँ फिराईं। दो भिन्न स्पर्शों से मिट्टी एक अनोखा रूप धारण कर रही थी।
         दूसरी सुबह जावेद की काफ़ी प्रतीक्षा करने के बाद सदानंद स्वयं ही कुमार को ले जावेद के घर की ओर निकल पड़ा। यूँ तो वह रोज़ सदानंद के दफ़्तर रवाना होने से पूर्व ही तत्परता से कुमार को ले जाता। जावेद के दरवाज़े का ताला देख सदानंद तनिक चिंतित हुआ। “सुबह तीन बजे ही लेकर गए।” पड़ोसी महिला बोली। सदानंद कुमार को साथ ले तुरंत अस्पताल पहुँचा। जावेद प्रसूतिकक्ष के बाहर खड़ा था। इन दोनों को देख वह दौड़ते हुए निकट आया और सदानंद के हाथ हाथों में ले ख़ुशी से बोला, “बेटी हुई है भाईजान!” सदानंद ने बटुए के ख़ास ख़ाने से दिक़्क़त के मौक़े पर काम आने के हेतु से मोड़कर रखी हुई सौ-सौ की दो नोट निकालीं, और झिझकते जावेद की हथेली में जबरन थमाकर भावुक स्वर में कहा, “और चाहिए तो भी माँग लेना, शरमाना नहीं।” दोनों ने एक-दूसरे को दीर्घ आलिंगन दिया। यह सब देख विस्मित हुए कुमार को जावेदने प्रेम से गोद में उठाते हुए कहा, “छोटी बहन के साथ खेलोगे नं?” जावेद का घर अचानक ढेर सारे मेहमानों से खिल उठा। बेटी ने सबके होठों पर मुसकान लाई थी; इसलिए हेतुतः उसका नाम तबस्सुम रखा गया। सदानंदने सगे भाई की तरह सारी चीज़ें सँभालीं, और समारोह को सकुशल संपन्न करने में तनिक भी कमी न छोड़ी। कुमार को तो एक लुभावनासा खिलौना ही मिल गया था।
        असामान्य आकलनक्षमता और प्रगल्भ बुद्धिमत्ता का वरदान लेकर जन्मा कुमार शैक्षणिक क्षेत्र में सदैव अग्रसर रहा। बुद्धिमत्ता के साथ कठोर परिश्रम की सीख भी पाए कुमार को अत्यधिक कठिन और इसी वजह से सर्वाधिक प्रतिष्ठित मानी गई प्रशासकीय सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण करना मुश्किल न हुआ। नियुक्ति के पश्चात अल्प काल में ही फुरतीले किंतु शांत और सारासार विचारों के व्यवस्थापक के रूप में वह विख्यात हुआ। उसका कामकाज देख, उन्हीं दिनों राज्य के तीन ज़िलों में एक ही समय पर हुए सांप्रदायिक दंगों को नियंत्रित करने के लिए उसे राज्यपाल की ओर से विशेष नियुक्ति के आदेश प्राप्त हुए।
          “सर, प्रिंसिपल मैडम प्रतीक्षा कर रही हैं।” एक विद्यार्थी के कहने पर कुमार चौंककर सावधान हुआ। शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरा और तुरंत मैडम के चरण स्पर्श किए। “यशस्वी भव।” कुमार की इतिहास की शिक्षिका और मौजूदा मुख्याधापिका मैडम ने आशीर्वाद देते हुए कहा। अतिसंवेदनशील बने तीन ज़िलों के दंगों को अत्यंत प्रभावी ढंग से केवल नियंत्रण में लाने तक सीमित न रहकर, एक और क़दम आगे बढ़ाते हुए, दो गुटों में मित्रता प्रस्थापित करवाने का जोखिम भरा काम सफलता से पूर्ण कर कुमार ने समाज में एक अनूठा संदेश पहुँचाया था। उसके इस कार्य के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति ऐसे दोहरे पुरस्कार उसे घोषित हुए थे। उसकी विशेष नियुक्ति दो जुदा हाथों से सँवरे कुमार के लिए संस्कारों का पुनःपठन ही साबित हुई। जिन दो शिक्षाओं ने उसे सौहार्द की परिभाषा सिखाई, उन्हीं को उसने एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी होते हुए देखा था। अनुशासित और आज्ञाकारी कुमारने कभी-कभार शिक्षकों की छड़ी का स्वाद भी चखा था; किंतु उसको हुआ ताड़न उसे सख़्त और सरल मार्गों का उचित अवलंबन सिखा गया। घातक तत्त्वों को नेस्त-नाबूद करने के लिए उसने सख़्त क़दम उठाए, किंतु राह भटके लोगों के लिए वह एक संवेदनशील मार्गदर्शक बन खंबीरता से डटा रहा। हेतुतः दंगे करवाकर रोटियाँ सेंकनेवाले सत्तालोलुप तत्त्वों को उसने जाल बिछाकर बड़ी कुशलता से धर दबोचा। प्रशासकीय सेवा में नियुक्त होने वाले तो कई होते हैं, लेकिन कुमार की समर्पितता ने उसकी नियुक्ति में चार चाँद लगा दिए थे। जिस विद्यालय में उसका व्यक्तित्व विकसित हुआ, उसी पावन वास्तु के प्रांगण में आज उसके सत्कार का भव्य समारोह था। अतीत का स्मरण हो वह बार-बार भावुक हो रहा था। भाषण भी उचित रूप से पढ़ पाएगा या नहीं इस बात को सोच वह शंकित था। जिसने माथे पर मातृ-वियोग लिखने में शीघ्रता की, उसीने कुमार के ललाट पर अखंड धैर्य गढ़ने की तत्परता भी दिखाई थी। तुरंत स्वयं को सँभाल कुमार समारोह के लिए सज्ज हो गया।
      सराहना और स्नेह से ओत-प्रोत समारोह में कुमार का समुचित सत्कार संपन्न हुआ। कुमार के भाषण के पश्चात विद्यार्थियों के एक समूह ने धार्मिक एकता पर आधारित विख्यात गीत गाना प्रारंभ किया, और प्रथम पंक्ति में बैठे नानी, मौसी, बाबा, ख़ुरशीदचाची, जावेदचाचा और तबस्सुम इन सारों की आँखें नम हो उठीं। कुछ ने पोंछीं, तो बाक़ी सारों ने खारे पानी को मुक्त कर दिया। कुमारने जूते का फ़ीता कसने के बहाने नीचे झुककर स्वयं के आँसू पोंछे। गत कई वर्षोंसे इन सभी के माध्यम से धर्म ने कभी आयत सुनी थी तो कभी कीर्तन श्रवण किया था। जो धर्म शीर-ख़ुर्मा चखकर तृप्त हुआ, वही तीर्थ की बूँद मात्र से कृतार्थ भी हुआ था। कल नानी के पल्लू से तो आज चाची की चुन्नी से उसने आँसू पोंछे थे। कभी वह चाचा की दिखाई आँखों से सहमा, तो कभी बाबा से रूठकर मौसी की गोद में जा छिपा। उस विशाल प्रांगण में विभिन्न भाषाओं में धर्म की विविध व्याख्याओं को लिखकर दिखा पाने वाले कई थे; किंतु धर्म की वास्तविक परिभाषा इन्हीं चुनिंदा नम आँखों ने जी, जानी और जीवंत रखी थी। आज पुनः एक बार वस्तुतः धर्म स्नेह-स्नात हो धन्य हुआ था।
■ हिंदी दिवस

(स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इसी ब्लॉग पर प्रकाशित मराठी काल्पनिक कथा का हिंदी अनुवाद)
(मूल मराठी कथा पढ़ने हेतु लिंकः https://jsrachalwar.blogspot.com/2017/08/blog-post_15.html)
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05 September, 2017

• क्षम्यताम् परमेश्वर


          रेल्वे ची भीषण दुर्घटना आणि तथाकथित बाबाच्या अटकेविरोधात उसळलेल्या डोंबाने झालेले श्रींचे स्वागत हृदयावर आघात करून गेले. खरे पाहता अशा अप्रिय घटना ही सांप्रत नियमितताच झाली आहे. म्हणूनच की काय त्यांच्याकडे बघण्याचा आपला दृष्टिकोन देखील जरा बोथटच झाला आहे. इतर वेळी अल्प काळ अस्वस्थ करणार्‍या अशा घडामोडी मंगल प्रसंगी मात्र प्रकर्षाने चटका लावून जातात. आगमनाच्या दिवशीच गालबोट लागल्याचे पाहून मन खजील झाले आणि नकळत मुखातून ‘क्षम्यताम् परमेश्वर’ निघाले.
          रेल्वे असो अथवा आस्था, बारकाईने बघता भारतात प्रत्येक क्षेत्र बिकट पेचात असल्याचेच जाणवते. कुठल्या आघाडीवर पहिली मोहीम आखावी हेच कळेनासे झाले आहे. वर्षानुवर्ष राबवलेल्या हलगरजी व गाफील धोरणांमुळे भ्रष्टाचार एखाद्या चिवट वृक्षाप्रमाणे आपली पाळेमुळे घट्ट रोवून बसलाय. मुळांच्या शिरकावाने पोखरलेल्या भिंतींना भगदाडे पडणारच आणि घरात पलीकडील उपद्रव शिरणारच. त्या उपद्रवाशी दोन हात करताना कामी आलेल्यांचे तपशील अंगावर शहारे आणतात. जेवढे संतत हौतात्म्य, तेवढेच सातत्य त्यांच्याबद्दलच्या अनास्थेतही पाहून मन विषण्ण होते. दुरून साजर्‍या दिसणार्‍या पारंब्यांच्या विळख्यात देश कासावीस होतोय. राजकारण, अर्थकारण आणि धर्मकारण यांच्या घट्ट वीणेच्या पाशात राष्ट्राचा श्वास गेली कित्येक वर्ष गुदमरतोय. प्रत्येक क्षेत्रात खोलवर रुजलेली अनागोंदी व अंदाधुंदी पाहून संताप येतो; पण तोंड दबलेलेच राहू देऊन बुक्क्यांचा मार सहन करण्यापलीकडे काहीच करता येत नाही. अभिव्यक्ती-स्वातंत्र्याचे धिंडवडे निघालेल्या राष्ट्राचे भवितव्य सुज्ञास सांगणे न लगे.
          पण ह्या सगळ्या औदासीन्यात श्रींचे आगमन नेहमी ‘सुखदायक भक्तांंसी’ असेच असते. मूर्तीची निवड ते आरास, रांगोळी, मखर, सजावट, नैवेद्य इत्यादी गोष्टींच्या गराड्यात काही काळ का होईना, दुःख जरा विरळ होते; क्वचित विसरही पडतो. आचमनाचे गोविंदाय नमः म्हणताच निराळा हुरूप येतो. रक्ष रक्ष परमेश्वर म्हणत विघ्नहर्त्याला साकडे घालताना आचरणात आजही आगळीच निरागसता येते. लंबोदराचे लोभस रूप पाहून किती साठवू लोचनी म्हणत मी दर वर्षी अतृप्तच राहतो. कर जोडून मुखाने पुण्योऽहम् तव दर्शनात् म्हणेपर्यंत आज देखील ब्रह्मानंदी टाळी लागते; आणि विसर्जनाचे मोरया म्हणताना अजूनही दाटूनच येते.
          दर वर्षी ढोल-ताशांच्या कर्णमधुर कल्लोळात गणराय वाजतगाजत येतात आणि दहा दिवस अनंत उत्साह भरून निरोपाच्या घडीला नयनी पूरही आणतात. त्यांनी मुक्तहस्ते वाटलेल्या सद्बुद्धीस काही भद्रजन सश्रद्ध ग्रहण करतात; म्हणूनच सध्या सुरु असलेल्या अखंड रणधुमाळीतही देश समाधानाचे चार श्वास घेऊ शकतो. सातत्याने होत असलेल्या प्रचारामुळे कर्मठ लोकांनी देखील प्रदूषण कमी करण्याच्या हेतुने विसर्जनाच्या सुधारित पद्धती अवलंबिणे ही गजाननाने दिलेल्या सद्बुद्धीची झलकच म्हणावी लागेल. पर्यावरण स्वच्छ राखण्याच्या दृष्टीने होत असलेल्या प्रयत्नांना मन आणि बुद्धी निर्मळ करण्याच्या इच्छाशक्तीचीही साथ लाभली, तर गणनायकाच्या प्रसादाचा गोडवा काही औरच असेल.

आवळ तव पाश आता, करिण्या काळ पातकाचा,
लागो अंकुश अधमावर, तीक्ष्ण तुझ्या बुद्धीचा,
व्हावा मोदकापरी मधुर, शब्द तो सकळ जनांचा,
होवो भद्र गणांचे, नायक असे तू ज्यांंचा।

कंठ दाटला स्मृतींनी, ठोका चुकला काळजाचा,
जातो हुरहुर लावुनी, सहवास औट घटकांचा,
किती रे लपवावा आम्ही, ओलावा त्या कडांचा,
लवकर परत रे बाप्पा, धीर सुटत असे आमुचा।

■ गणेशोत्सव
(Select lines from my Marathi poetry book)
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15 August, 2017

‘खरा तो एकची’


       पहाटे उठल्यापासूनच कुमार अस्वस्थ होता. एरवी शांत असलेल्या कुमारच्या देहबोलीतील बदल गड्यालादेखील सकाळी चहाचा कप हाती देतानाच ध्यानात आला होता. कार्यक्रमाची सुरुवात सकाळी आठला होती, पण भूतकाळ पुन्हा जगण्याची उत्सुकता कुमारला स्वस्थ बसू देईना. त्यामुळे न्याहारीदेखील न घेता सातलाच स्वारी शाळेत दाखल झाली. पहिल्या माळ्यावरची तुकडी ‘ब’. टेबल, खुर्ची, बाक, सगळे जुन्यासारखेच होते. काळ्याऐवजी हिरवा फळा हाच काय तो बदल. अगदी दाराची कडीदेखील जुनीच. वर्गात पाऊल ठेवताच सबंध भूतकाळ कुमारभोवती गिरक्या घेऊ लागला.
       प्रसूतिनंतर झालेल्या अतिरक्तस्रावामुळे अवघ्या काही तासांतच कुमारच्या आईने कायमचा निरोप घेतला. बाळाची आई गेल्याची जखम निश्चितच खोल होती, पण धीर खचून भागणार नव्हते. एका डोळ्यात अश्रू आणि दुसर्‍यात केवळ बाळासाठी उसने हसू आणून आजीपासून सगळ्यांनी कंबर कसली. सगळ्या नातेवाईकांनी आळीपाळीने सुरुवातीचे दोन महीने वेळ निभावून नेली, पण प्रत्येकाच्या मागे प्रपंच उभा; शेवट आजीवरच सगळा भार आला. निधड्या छातीने प्रसंगाला सामोरे जाऊन अगदी बाळाच्या मालिशपासून सगळे तिने नेटाने सावरले; पण इतरांसारख्याच तिलादेखील जबाबदार्‍या चुकणार त्या कशा. बाळाच्या उष्टावणानंतर फार कष्टाने तिने गावी परतण्याकरिता मनाची तयारी केली. सदानंदचा धीर जरा खचतोय असे पाहून कुमारच्या मावशीने एखादी दिवसभराची आया बाळाच्या सांभाळाकरिता नेमण्याचे सुचविले. दोन-तीन ठिकाणी निरोप गेले. दोन दिवसानंतर एका गृहस्थाने येऊन विचारले, “जी, बच्चे को सँभालने के लिए आया चाहिए ऐसा बताया किसीने.” गेल्या दीड-दोन वर्षांत फक्त चेहर्‍यानेच माहीत असलेल्या त्याच आळीतील त्या गृहस्थाकडे आश्चर्याने बघून सदानंद म्हणाला, “हाँ, चाहिए तो है .......... नाम?” “जी, मेरा नाम जावेद”, तो गृहस्थ म्हणाला. सर्वांच्या लगेच उंचावलेल्या भुवया जावेदच्या चटकन लक्षात आल्या. जावेद जरा हिरमुसलेला बघून सदानंद म्हणाला, “बाद में बताएँगे.”
       दोन दिवसांच्या विचाराअंती दुसरी कुणी व्यक्ती लक्षात येईपर्यंत तात्पुरती सोय म्हणून सदानंदने जावेदला होकार कळविला. “जी अच्छा, बहुत मेहरबानी, आज से ही सँभालेंगे”, जावेदने आनंदाने म्हटले आणि लगेच पत्नीला घेऊन हजर झाला. जावेदची मिळकत बेताचीच असल्याने आधार म्हणून खुरशीदने देखील आनंदाने जबाबदारी स्वीकारली. तिला स्वतःला मूल नसल्याने ती बाळाचा सांभाळ नीट करू शकेल अथवा नाही ही सदानंदकरिता चिंतेची बाब होती. सकाळी साडेसातला कचेरीत निघालेला सदानंद सायंकाळी घरी परतेपर्यंत सदानंदच्याच घरी खुरशीदने बाळाला सांभाळणे सुरू केले. साधारण महिन्याभरात बाळाने आधी धरलेले बाळसे कायम असल्याचे पाहून सदानंदने आणखी काही दिवस खुरशीदलाच बाळाचा सांभाळ करावयास सांगितले.
       “आज दृष्ट काढा आधी ह्याची”, कुमारच्या पहिल्या वाढदिवसाला म्हणून आलेल्या आजीने अश्रू सावरीत म्हटले. “जी वह तो खुरशीद रोज़ उतारती है, आज दोबारा उतार देगी”, जावेद म्हणाला. ह्या बाबीची जरादेखील कल्पना नसलेली घरची मंडळी चकित तर झालीच, किंचित ओशाळलीदेखील. कुठलाही ऋणानुबंध नसताना, कुणीही न सुचविता, नियमितरित्या आणि आपुलकीने कुमारची दृष्ट काढणार्‍या खुरशीदला घरच्या मंडळींनी झटक्यात पसंतीची पावती दिली, आणि तिच्या ‘पर्मनंट’ कामावर शिक्कामोर्तब झाले. त्याचबरोबर गेले काही दिवस अडी-अडचणीला स्वयंपाक सांभाळून घेणारा जावेद ‘पूर्ण वेळ स्वयंपाकी’ देखील झाला. वाढदिवसाचा स्वयंपाक दोघांनी मिळूनच केला. “खूप छान स्वयंपाक केलात दोघांनी”, आजी कौतुकाने बोलली. “जी”, दोघांनी लवून म्हटले.
       निव्वळ मिळकतीचे माध्यम म्हणून सुरुवात केलेल्या खुरशीद आणि जावेदला कुमारचा लळा केव्हा लागला ते त्यांचे त्यांनाच कळले नाही. त्या दोघांचे मायाळू स्वभाव आणि कुमारचे लोभस रूप एकमेकांना पूरक होते. क्वचित खुरशीद आजारी असली तरी जावेद कुमारचा सांभाळ सहज करून घेई. दोघांच्या कष्टाळू आणि समर्पित स्वभावामुळे सदानंदनेदेखील किरकोळ बाबी वगळता त्यांना मोकळीक दिली होती. आजी व मावशी वरचेवर भेटीस येत असत. प्रत्येक भेटीत कुमारकरिता निरनिराळ्या पोषक जिन्नसांच्या पाकक्रिया खुरशीद आजीकडून शिकून घेत असे. निरोप घेताना दोघे जोडप्याने रीतसर आजीच्या पाया पडत. आजी स्वतःबरोबर खुरशीदच्याही ओल्या कडा स्वतःच्या पदराने टिपत असे. रिक्षा दृष्टीआड होईपर्यंत दोघे निश्चल उभी असायची. पहिल्या भेटीत उंचावलेल्या भुवया दर खेपेला हळू-हळू हार मानीत होत्या.
       दिवसा जावेदचाचांकडून ‘मछली जल की’ शिकलेला कुमार सायंकाळी बाबा घरी येताच त्यांना जोडे देखील काढू न देता “आधी मारूतीचं शेपूटवाली गोष्ट सांगा” म्हणत सदानंदला बिलगत असे. दुपारी खुरशीदचाचीच्या हातची खीर पोटभर खाऊन रात्री मात्र बाबांनी तयार केलेला पौष्टिक काढा बिचारा निमूट प्यायचा. “शक्तिमान कुणाला व्हायचं?” असे लाडीगोडीने विचारीत सदानंद त्यास काढा पिण्यास भाग पाडीत असे, आणि काढा पितानाचे त्याचे हावभाव बघून खळखळून हसत असे. दररोज रात्री ओसरीत फेर्‍या मारीत, थोपटून कुमारला निजवावे लागे. एके रात्री खांदा का दुखतोय याचा विचार करीत असता सदानंदला ध्यानात आले की ज्याला रोज खांद्यावर घेऊन तो थोपटतो ते ‘बाळ’ तब्बल पाच वर्षांचे व्हायला आले होते. प्रेमभराने सदानंदने कुमारच्या केसांमधून बोटे फिरविली. दोन भिन्न स्पर्शांनी माती एक निराळाच आकार धारण करीत होती.
       दुसर्‍या दिवशी सकाळी जावेदची बरीच वाट पाहून नाइलाजाने सदानंद स्वतःच कुमारला घेऊन जावेदकडे निघाला. एरवी सदानंद कचेरीत निघण्याअगोदर जावेद नेमाने येऊन कुमारला घेऊन जात असे. जावेदच्या घराला कुलूप बघून त्याच्या मनात शंकेची पाल चुकचुकली. “सुबह तीन बजे ही लेकर गए”, शेजारच्या काकू म्हणाल्या. सदानंदने कुमारला घेऊन तडक इस्पितळ गाठले. जावेद प्रसूतिकक्षाच्या बाहेरच उभा होता. दोघांना बघताच तो लगबगीने जवळ आला आणि सदानंदचे दोन्ही हात हातात घेऊन अत्यानंदाने म्हणाला, “बेटी हुई है भाईजान!” पाकीटाच्या चोरकप्प्यात अडी-अडचणीकरिता दुमडून ठेवलेल्या शंभरच्या दोन नोटा सदानंदने काढल्या आणि ओशाळलेल्या जावेदच्या तळहातावर बळजबरीने ठेवून स्वतःच त्याची मूठ बंद केली. “और चाहिए तो भी माँग लेना, शरमाना नहीं”, सदानंदने गहिवरून म्हटले. दोघांनी एकमेकांना दीर्घ आलिंगन दिले. “छोटी बहन के साथ खेलोगे नं?” बावरलेल्या कुमारला प्रेमाने जवळ घेत जावेदने म्हटले. जावेदचे घर अचानक पाहुण्यांनी गजबजून गेले. सर्वांच्या ओठांवर हसू आणणारी म्हणून मुलीचे नाव हेतुतः तबस्सुम ठेवले गेले. सदानंदने अगदी सख्ख्या भावासारखी जावेदची दखल घेऊन सर्वतोपरी मदत करून समारंभ सुखरूप पार पाडला. कुमारला तर एक गोंडस खेळणेच लाभले होते जणू.
       असामान्य आकलनशक्ती आणि प्रगल्भ बुद्धिमत्तेचे वरदान घेऊन जन्माला आलेल्या कुमारने शैक्षणिक क्षेत्रात आपली घोडदौड सदैव कायम राखली. बुद्धिमत्तेच्या जोडीला परिश्रमाचे बाळकडू लाभल्याने सर्वात अवघड आणि म्हणूनच सर्वाधिक प्रतिष्ठित मानली गेलेली प्रशासकीय सेवेची परीक्षा उत्तीर्ण होणे त्याला फारसे जड गेले नाही. सेवेत रुजू झाल्यानंतर अल्पावधीतच एक तडफदार पण शांत आणि सारासारविवेकी व्यवस्थापक म्हणून तो नावारूपास आला. त्याची कारकिर्द पाहून त्याच काळात राज्यातील तीन जिल्ह्यांत एकाच वेळी सांप्रदायिक दंगली उफाळल्याने राज्यपालांकडून त्याला विशेष नेमणुकीचे आदेश मिळाले.
       “सर, प्रिंसिपल मॅडम वाट बघताहेत.” एका विद्यार्थ्याच्या बोलण्याने कुमार भानावर आला. झरझर पायर्‍या उतरून खाली आला आणि लगेच मॅडमच्या पाया पडला. “यशस्वी भव”, कुमारला इतिहास शिकविलेल्या आणि सांप्रत मुख्याध्यापिका असलेल्या मॅडम कुमारला आशीर्वाद देत म्हणाल्या. अतिसंवेदनशील अशा तीन जिल्ह्यांतील दंगली अत्यंत प्रभावीपणे केवळ आटोक्यात आणण्यापर्यंतच न थांबता, एक पाऊल पुढे जाऊन दोन गटांमध्ये सलोखा प्रस्थापित करण्याची जोखमीची कामगिरी फत्ते करून कुमारने एक निराळा संदेश समाजापर्यंत पोहचविला होता. त्याच्या ह्या कामगिरीसाठी राज्यपाल आणि राष्ट्रपती असे दुहेरी पुरस्कार त्याला घोषित झाले होते. त्याची विशेष नियुक्ती ही दोन भिन्न हस्ते घडलेल्या कुमारकरिता संस्कारांची जणू उजळणी ठरली. ज्या दोन शिकवणींनी त्याला सौहार्दाची व्याख्या सांगितली त्याच एकमेकींच्या रक्ताचे घोट पिण्यास आतुर झालेल्या कुमारने पाहिल्या. शिस्तप्रिय आणि आज्ञाधारक असलेल्या कुमारने प्रसंगी शाळेतील मास्तरांच्या छडीचाही स्वाद चाखला होता खरा; पण झालेले ताडन त्याला कडक आणि नरम धोरणांचे परिस्थितीनुसार अवलंबन नकळत शिकवून गेले. घातक तत्त्वांच्या मुसक्या आवळण्यासाठी त्याने कमालीचे सक्तीचे धोरण अवलंबिले; पण वाट चुकलेल्यांकरिता तो दीपगृहासारखा धैर्यशील आणि खंबीर उभा राहिला. हेतुपूर्वक दंगली घडवून पोळ्या शेकणार्‍या सत्तालोलुप तत्त्वांना त्याने गनिमी कावा रचून मोठ्या शिताफीने धडा शिकविला. प्रशासकीय सेवेत रुजू होणारे तर अनेक असतात; पण कुमारने त्याच्या नियुक्तीचे चीज केले होते. ज्या विद्यालयात कुमार घडला त्याच पावन वास्तूच्या प्रांगणात आज त्याच्या सत्काराचा नयनरम्य सोहळा होता. भूतकाळ आठवून कुमारला वारंवार गहिवरून येत होते. भाषण तरी नीट वाचणे जमेल की नाही अशी शंका त्याला आली. पाच दिवस आगाऊच हजेरी लावून ज्या सटवाईने कपाळी मातृवियोग लिहिला; तिनेच ‘पाचवी’ ला आठवणीने पुनरागमन करून कुमारच्या ललाटावर अखंड धैर्य देखील कोरले होते. लगेच स्वतःला सावरून कुमार समारोहासाठी सज्ज झाला.
       कौतुक आणि जिव्हाळ्याने ओतप्रोत सोहळ्यात कुमारचा रीतसर सत्कार संपन्न झाला. कुमारचे भाषण आटोपल्यानंतर विद्यार्थ्यांच्या एका समूहाने साने गुरुजी रचित ‘खरा तो एकची धर्म.....’ गायला सुरुवात केली, आणि पहिल्या रांगेत बसलेल्या आजी, मावशी, बाबा, खुरशीदचाची, जावेदचाचा आणि तबस्सुम ह्यांच्या कडा पाणावल्या. काहींनी टिपल्या, तर इतरांनी खार्‍याला मनसोक्त वाहू दिले. कुमारने जोड्याचा कसा व्यवस्थित करण्याचे निमित्त करून खाली वाकून स्वतःचे डोळे टिपले. गेली कित्येक वर्ष ह्या सगळ्यांच्या माध्यमातून धर्माने कधी आयत ऐकली होती, तर कधी अभंग गायला होता. जो धर्म शीरखुर्मा चाखून तृप्त झाला, तोच थेंबभर तीर्थाने कृतार्थ ही झाला होता. काल आजीच्या पदराने तर आज चाचीच्या चुन्नीने त्याने डोळे टिपले होते. कधी तो चाचाचे वटारलेले डोळे बघून बावरला तर कधी बाबांवर रुसून मावशीच्या कुशीत लपला. त्या विशाल प्रांगणात विविध भाषांत धर्माच्या निरनिराळ्या व्याख्या लिहून दाखवू शकणारे बरेच होते; पण धर्माची खरी परिभाषा मात्र ह्या मोजक्या साश्रु नयनांनीच जाणली, जगली आणि जगविली होती. आज पुन्हा एकदा खर्‍या अर्थाने धर्म प्रेमात न्हाऊन धन्य झाला होता.
(काल्पनिक कथा)
(स्वातंत्र्यदिन विशेष)
(सर्व वाचकांना स्वातंत्र्यदिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा.)
(कथा का हिंदी अनुवाद पढ़ने हेतु लिंकः https://jsrachalwar.blogspot.com/2017/09/blog-post.html)
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13 August, 2017

• पार्थिव


     सनातन जीवनपद्धति में श्राद्ध विधि का विशेष महत्त्व है। चावल के पिंड को जब तक कौआ चोंच से स्पर्श नहीं करता, तब तक मृत व्यक्ति की उसके जीवित क्षण में कोई इच्छा अपूर्ण रही होगी ऐसा माना जाता है। श्राद्ध के दौरान चढ़ाया भोग पितरों तक पहुँचता है ऐसी भी धारणा है। मृतक के परिजनों को यह कहकर सांत्वना दी जाती है, कि मृत व्यक्ति उनके आसपास ही अदृश्य रूप में वास करते हैं; और उनकी स्मृति की ऊर्जा से हौसला देते हैं। बचपन में सोचता था, कि क्या वाक़िई ऐसा होता होगा? विज्ञान के अद्भुत आविष्कारों ने यह भी संभव किया है। अब हमारे प्रियजन मृत्यु के पश्चात भी हमारे आसपास बदले हुए रूप में ही, किंतु जीवित रह सकते हैं। आज आधुनिक, अनूठी और हैरत-अंगेज़ तकनीकों से इन्सानी कार्निया, गुर्दे, फेफड़े, यकृत तथा स्वादुपिंड का सफल प्रत्यारोपण सहज संभव है। भारत में आज अंगदान की प्रवृत्ति प्राथमिक अवस्था में है। समाज के कुछ ही स्तर तक इसके प्रति जागरूकता है।
     मेरे पिता ने कई वर्षों पूर्व मेरे युवावस्था में पदार्पण करते ही नेत्रदान के संकल्प पत्र पर उनके साथ मुझसे भी हस्ताक्षर करवाए थे। उसी प्रेरणा से चंद वर्षों पूर्व मैंने अंगदान का भी संकल्प किया। जिन बेहतरीन कार्यों को मैं मेरे जीवित क्षणों में न कर पाऊँ; हो सकता है और मंशा भी यही है, कि मेरे पश्चात मेरे अंग पाकर कोई अन्य व्यक्ति कर दे। आशा है, कि अंगदान एक संस्कृति बन हमें अपना जीवन सार्थक करने की प्रेरणा दे।

श्वास मेरे पा बने फिर, विश्व-शांति दूत कोई,
धन्य हों फिर आत्म मेरे, देख मानवता यों छाई।


■ Organ Donation Day
(Select lines from my Hindi poetry book)
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01 August, 2017

• टिळक


     “..... आणि माझ्या बंधु-भगिनींनो, आज एक ऑगस्ट, टिळक पुण्यतिथी ....” वर्तमानपत्र वाचण्यास घेतले, आणि शालेय जीवनात केलेल्या भाषणांची तीव्रतेने आठवण झाली. टिळकांची करारी मुद्रा आजही सर्वांगावर रोमांच उभे करते. सत्याचीच कास सदैव धरावी असा संदेश देणारी ती भाषणे आजही कानाशी तशीच निनादतात. खुर्चीवर उभे राहून, हाताची घडी घालून, मोठ्या आवाजात बोलतानाची शालेय गणवेषातील स्वतःची बालमूर्ती आठवली, आणि ओठांवर आपसुकच स्मित आले. प्रत्येकाच्या भाषणाचा शेवट मात्र सारख्याच शब्दांनी होत असे ..... “आणि याबरोबरंच मी माझे भाषण संपवतो/संपवते, जय हिंद, जय भारत!”
     शालेय जीवनात हृदयी उमटलेला टिळकांचा ठसा आजवर पुसट देखील झाला नाही. आज पुण्यतिथीच्या निमित्ताने त्या विलक्षण व्यक्तिमत्त्वाची उजळणी करीत असता उचंबळून आले खरे, पण आजच्या पोकळीची जाणीव होऊन मन विषण्ण देखील झाले. भारतीय संस्कृतीची एक ओळख असलेली सहिष्णुता आज बळजबरीच्या सहनशीलतेची समानार्थी झाली आहे. जवळजवळ प्रत्येक क्षेत्रात, मग ते शासकीय असो अथवा खाजगी, शैक्षणिक असो वा व्यावसायिक, कमालीची उदासीनता आहे. रहदारीचे नियम कसे पाळावेत ह्या ऐवजी आपण भावी पीढीला नियम न पाळल्याने होणार्‍या कारवाईत ‘मॅनेज’ कसे करावे ह्याचेच धडे अधिक देतो. पूर्वीची आडवळणे आज हमरस्ता होऊ बघताहेत. दररोज सीमोल्लंघन करणार्‍या भ्रष्टाचाराची सीमारेखाच अदृश्य झाली आहे. व्यंगचित्रे साधे स्मित देखील आणण्यात असमर्थ होण्याइतका तो सर्वदूर मुरलाय.
     कमालीची दूरदर्शिता दाखवून स्वातंत्र्यपूर्वकाळात उदात्त आणि राष्ट्रवादी हेतुने आरंभिलेल्या सार्वजनिक गणेशोत्सवास अशोभायमान स्वरूप बहाल करून आपण दशकांपासून करीत आलेल्या टिळकांच्या अपमानाची नोंद कुठल्या खात्यावर करावी? तीच गत शिवजयंतीची! शाहिस्तेखानाची बोटे छाटणारा, आणि वाघनखांनी अफजलखानास यमसदनी धाडणारा तो शिवाजी; एवढीच काय ती शिवरायांची ओळख करवून घेतलेल्या अनुयायांना खरा शिवबा कधी गवसलाच नाही; आणि त्या दृष्टीने त्यांनी कधी प्रयत्नही केले नाहीत. विवेकपूर्ण शासन, शेती-संवर्धन, प्रभावी कर प्रणाली, अंतर्गत सुरक्षा, सर्वधर्मसमभाव, जातीय सलोखा, हे आणि अन्य अनेक गुंतागुंतीचे सामाजिक व राष्ट्रीय पैलू अगदी लीलया हाताळणार्‍या छत्रपतींची प्रतिमा तोरण, झेंडे आणि माल्यार्पणासारख्या शिष्टाचारांनी झाकाळून जाते. बहुतांश सार्वजनिक शिवजयंती समारोहांमध्ये समाज प्रबोधनाचा हेतू साकार झालेला तूर्तास तरी दिसत नाही. “मी शेंगा खाल्या नाही, मी मार खाणार नाही” असे निर्धाराने मास्तरांना सांगणारे टिळक अन्यायाविरुद्धचा ‘झीरो टॉलरन्स’ नकळत शिकवून गेले, पण आज झीरो टॉलरन्स देखील अंगावर बेतू लागला आहे. “सरकारचे डोके ठिकाणावर आहे काय?” असा तडक प्रश्न इंग्रज सरकारला करून खटला ओढवून घेणार्‍या टिळकांच्या प्रेरणेने आज काही लोक तसलेच धाडस करू पाहतात; परंतु अशांवर आजही रोष ओढवून घेण्याचीच वेळ येते, याहून मोठे दुर्दैव ते कोणते?
     वर्तमानपत्राच्या अग्रलेखात टिळकांना मिळालेली ‘स्पेस’ संतोषजनक होती. मी न राहवून संपादकांना फोन करून आभार प्रकट केले. जागेअभावी लिहिता न आलेली आणखी काही माहिती संपादकांनी पुरविली. तत्कालीन काही सामाजिक तत्त्वांबाबत टिळकांची भूमिका प्रतिगामी असल्याची नोंद इतिहासात आढळते. इतर काही घटनांच्या वादाचा भोवरा देखील आढळतो. पण त्यांच्या एकूण कार्यालेखात हे तपशील निव्वळ एका नोंदेइतपतच जागा व्यापू शकतील. संपादकांशी चर्चा आटोपली, आणि ‘झालेत बहु, होतील बहु, .......’ या जुन्या वचनाची आठवण होऊन मी विचारमग्न झालो.
     आणखी किती काळ सत्ययुगाची प्रतीक्षा? टिळक, पुनर्जन्म जर वास्तविकता असती तर किती बरे झाले असते हो!
 टिळक स्मृतिदिन
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14 May, 2017

'जननी'


नहीं व्यक्तिविशेष, जननी अभिव्यक्ति है निःसीम की,
स्नेह का समानार्थी, वर्षा वह प्रेम की,
है सराबोर करुणा से, मूर्ति त्याग निःस्वार्थ की,
वह पर्याय ममता का, परिभाषा अपरिमित की।

('मदर्स डे' विशेष)
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10 May, 2017

‘बुद्ध’


भेद रंगों पंथों में न हो, सम्मान हो पावन कर्मों का,
गाए गीत हर श्वास अब, शील, मैत्री, करुणा का,
मिटे बोध से तुम्हारे, तिमिर अज्ञानी मन का,
पुनः स्मित करो बुद्ध, घोष हो शांति के पर्व का।

 बुद्ध पूर्णिमा

           कामना है, कि द्वेष के मँडराते बादल शीघ्र हटें, और समस्त पृथ्वी सद्भावना की कौमुदी प्राशन कर तृप्त हो। 
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06 May, 2017

'To be hanged till Death'


Let the gallows deter, make a statement clear,
May the shiver go down the spine of the future sinner,
Even to think monstrous, may the savage not dare,
May humans be humane, the world be free from fear.

Nirbhaya,
Our fight doesn’t end here.

■ Nirbhaya case verdict

(Select lines from my English poetry book)
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28 April, 2017

'अक्षय्य तृतीया'


अक्षय्य हो बल, धैर्य, शौर्य, हो क्षय हर पातकी,
हर वार हो परशु सा, हर गाथा दिग्विजय की,
हो पूजन वैभव का, भक्ति भी अप्रतिम की,
हो प्रारंभ महाकथा भी, किंतु शांति के महापर्व की।
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26 April, 2017

'कैफ़ियत-ए-उल्लू'


बाशिंदा हूँ शाइस्ता, काली गहरी के सन्नाटों का,
ख़ामोश मुसाफ़िर, दरख़्तों की ग़ैर-महदूद सल्तनत का,
कहीं इबादत-ए-दौलतमंद, कहीं फ़िरिश्ता हूँ मौत का,
इन्सान नादाँ क्या जाने, दर्द तनहाई-ए-तारीकी का.

(कैफ़ियत-ए-उल्लू-state of affairs of Owl, बाशिंदा-resident, शाइस्ता-polite, दरख़्त-tree, ग़ैर-महदूद-without bounds, सल्तनत-kingdom, इबादत-ए-दौलतमंद-worship by rich, फ़िरिश्ता-messenger, नादाँ-silly, तनहाई-ए-तारीकी-lonely feeling during darkness)
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12 April, 2017

'ख़ूँ-ओ-ख़ंजर'


ट्रम्प चला सँवारने, किरमिच-ए-समंदर लहू से,
किम हुआ है क़िर्मिज़ी, इरादा-ए-इंतिक़ाम से,
करे कौन फ़िक्र-ए-अवाम, बीमार सब जुनूँ-ए-जंग से,
कहो होगा इन्सान कब तक, ख़ूँ ख़ंजर-ए-रंजिश से.

(ख़ूँ-ओ-ख़ंजर-blood & dagger, किरमिच-ए-समंदर-canvas of sea, क़िर्मिज़ी-red, इरादा-ए-इंतिक़ाम-intention to vengeance, फ़िक्र-ए-अवाम-concern about citizens, जुनूँ-ए-जंग-insane desire for war, ख़ूँ-blood(here-murdered), ख़ंजर-ए-रंजिश-dagger of hostility)
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27 March, 2017

‘Assault on Medicine’


     In Marathi goes a saying, ‘टाकीचे घाव सोसल्याशिवाय देवपण येत नाही’, meaning ‘Unless a rock bears an insult by chisel, it cannot become an idol of worship’. Did the judgement want to submit the same? Doctors, are you going to attain Godly status? But do you really want such a status, or are you contented with your human(e) status? Certainly, the latter is true. Doctors just wish for human treatment, faith in their actions and respect for their hard-earned knowledge. Gratitude will be treated as a bonus.

     Being a diverse setup, India has always been and will remain a challenge for those who intend to bring it to par with developed nations. The population is large, dense, scattered and not connected appropriately. Culture, literacy rate & level, social customs, and languages vary a lot. I have worked in five states since I started my career. They had diversity on many fronts. This applies to the remaining states too. Being a doctor, it was great to learn that all human bodies are anatomically and physiologically similar. Apart from similarities, we also learned about human behavioural diversity, but got practical lessons only when we stepped into the huge classroom called society. Dealing with such a diverse population was quite a task. Things that were easily understood by illiterates could not be digested by literates, and aspects that were beyond the capacity of illiterates were questioned by literates. At times, I couldn’t decide whether to laugh or shout; but I resisted both, as both would invite trouble. So I began to accept and overlook it. Friends who stayed in one place with limited resources also experienced a similar situation; although not as diverse as mine. Few friends staying in metros or metro-like places began their careers in well-equipped hospitals, but they also faced similar anger, apathy and hatred from patients and their relatives. We all accepted and adjusted to all the rage and remained mute as we always believed and still believe that medicine is a noble profession. But unable to bear the ever-increasing stress, when one of us showed resistance, we were blessed with violence. When we retaliated, we were gifted ultimatums. This started happening repeatedly. What went wrong and where?

     The doctor-population ratio has always been at a pathetic low in India. This was a great blessing to quacks and black magicians. The legislation failed to implement in numerous small pockets of India where a large population stays. Scores of alternative medicine professionals began to practice modern medicine. Pharmaceutical legislation not being very stringent, led to OTC (over-the-counter) availability of the entire drug store. Highly inappropriate, wrong & unethical medical practices along with self-medication resulted in life-threatening situations. When such patients were brought to a qualified modern medical practitioner, he/she was expected to save and treat the patient. Unhealthy relations between modern and other practitioners built a considerable rift; enough to encourage hooliganism. The facts were conveniently forgotten and the innocent doctor often (or mostly) lost in the dirty game of shifting the blame. The other side of the coin is painfully noteworthy. To compete with quacks and parallel practitioners, many modern medicine practitioners followed unethical ways, and tarnished the noble image more. Female foeticide can also be mentioned as one of many such malpractices. Cut practice (a prevalent term for exchanging favours) is also another major reason for society’s raised eyebrows. Not all doctors are indeed involved in malpractice, but the number of such doctors is disturbing. Society puts all doctors in the same black frame. The ultimate result of all these facts is a lack of faith in doctors, anger over trivial mishaps, rage over minor events and violence faced by doctors.

     The medical profession runs 24 x 7. Doctors as well as paramedics are often burdened. There are various consents that patients or relatives are made to sign. They are either exhaustive or hard to comprehend and often signed in a hurry due to emergency medical situations. Sometimes, due to inadequate staff, these consents are just signed by patients or relatives without knowing the written content in detail. From a legal perspective, these consents are very essential. Apart from getting these consents signed, doctors need to devote sufficient time to discussing with the signatories to explain the meaning of the written matter. At the end of all consents, it is mentioned that the matter was explained to them in the language they understood. The sentence would sometimes come to the rescue. In India, we often hide the ailment from the patient. Sometimes, knowingly or unknowingly, a sensitive aspect of an actual ailment may be kept hidden from relatives too. These practices often invite unpleasant situations when patients become critical or lose some part of their body or, at times, life. Patients or relatives express displeasure as this situation was never explained to them. Due to unexplained and unexpected negative outcomes, their reactions often become violent, resulting in damage to property and assault on medical professionals. As a result of excess workload, fatigue often leads to objectionable remarks by medical professionals. There should be a sufficient number of doctors and paramedics so that the work goes on uninterrupted and staff get enough time to rejuvenate. Efforts should be made to delegate a few responsibilities. But explaining consent and revealing the details of the ailment should necessarily be done by treating doctors only. This creates healthy doctor-patient bonding, grows faith in doctor and at times boosts the morale of the patient. When all the facts of the ailment are revealed, the chances of malpractice are almost nullified. The outcome of the case may be negative, but the reactions will certainly not be unpleasant.

     Recently, Maharashtra witnessed a blanket strike by the medical fraternity against the judgement in one of the cases of assault on doctors on duty. Not the judgement, but the words were surprising and shocking. No influential or highly active group/s joined or supported the medical fraternity in their fight as those groups had no vested interests. These so-called humane groups turn out only when muscle or money is the aim. The number of quacks and black magicians who are held and penalised is negligible. Not only this, but other issues also remain unsolved for want of enough evidence. As usual, an unending debate about witnesses, evidence, exhibits, duties, ethics, regulations, rules and so on continues. Finally, the black buck is killed, but the killer is not identified, giving rise to a modern-day proverb- ‘हिरन भी मरे, और बंदूक भी न मिले’. The victim keeps running from pillar to post. The placards like ‘doctors are healers’ or a poster of a cute baby in a mother’s lap are now replaced by dry notices with even more dry mention of codes, sections, para, sub-para etc. The places of healing now wear the appearance of a lawyer’s office. Doctors are now engaging themselves in knowing and implementing legal details at their workplace. With the changing pattern of society, this has become mandatory. But legal provisions should not act as a weapon, but a deterrent. Unfortunately, almost all areas face resembling if not similar situations. We have started calculating everything in terms of money, power, profit or loss. Although we expect similar things in all areas, including the medical profession, we don’t react, retaliate, shout, raise slogans, or fight in similar ways in all places. We probably wouldn't react violently at any bar or restaurant because of serving bad liquor or bad food, as we were deterred by bouncers staring. Hospitals cannot certainly have bouncers, nor do schools where certain students fail to perform even after paying sky-high fees. We don’t raise our voice against the so-called ‘online Baba’ for not getting relief from ailments even after performing a few ‘आसन/क्रिया’. We don’t even question the ugly black scars gifted by a black magician. We are deterred by the nexus of the online Baba and the black magician with some highly influential groups. Doctors never found it appropriate to have such deterrents. So we dare to pull even highly qualified humble medical professionals into the witness box for not being able to completely treat a patient whose ailment was already worsened by ‘online Baba’ and/or the ‘Black magician’. Our attitude needs a change and pharmaceutical regulations a makeover. The legislation requires a revamp. The Constitution demands a great amendment.

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04 February, 2017

'ट्रम्प-कार्ड'


द्वार बंद कर, भेदभाव की धुन ‘ट्रम्पे’ट बजाते,
चलत जहाँ है ‘दुकान’ उनकी, दुर्जन वहीं हैं बसते,
कच्ची सोच से पक्की ‘दीवारों’ के सपन रचाते,
भगवन किरपा राखिये, मानस टूटत जाते।
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30 January, 2017

‘Martyrs’ Day’


Thy glasses now gather dust, that once gave us clear vision,
Your woven dreams, a fashion, which then adorned the nation,
Your idol, a weapon now crazy, ideals so selfishly chosen,
Morals decorate the walls, essence conveniently forgotten.

Your words, now a caged artwork, which shook confinement mighty,
Quotes stud the chattering that once roared the skies lofty,
We lost your hard-earned sovereign, in sheer ignorance and frenzy,
We made a mere brand out of you, to quench our thirst, nasty.

You lived the sacrifice until death, we just chant definition,
Utterly ashamed we are, even to submit a confession,
Trapped we are in a quagmire, leeches sucking the nation,
Help us, O Souls Supreme, bless us with reincarnation.

Death Anniversary of Mahatma Gandhi

(Select lines from my English poetry book)

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