• हिंदी कक्ष

14 May, 2017
जननी


नहीं व्यक्तिविशेष, जननी अभिव्यक्ति है निःसीम की,
स्नेह का समानार्थी, वर्षा वह प्रेम की,
है सराबोर करुणा से, मूर्ति त्याग निःस्वार्थ की,
वह पर्याय ममता का, परिभाषा अपरिमित की।

(मदर्स डे विशेष)
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11 October, 2016
विजयादशमी


अब न क्षमा, न देंगे अवसर, भस्म करने हैं अधम,
करने हैं आतंकी कायरों के नापाक सिर क़लम,
आया है क्षण सीमोल्लंघन का, हर दिशा, हर क़दम,
लाँघ मर्यादा अब रेखा की, बनें वे वीर पुरुषोत्तम।
मातृभूमि शक्ति बन अब, हो भ्रष्टासुरमर्दिनी,
हो पांडव पंच-भूत सकल भद्र के, बरसें बन दामिनी,
कंपित गलित-गात्र हो शत्रु, दे स्वयम् को मुखाग्नि,
हर लाल कौत्स हो गाए, स्वर्णिम विजय-रागिनी।
विजया-दशमी की हार्दिक बधाई।
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26 October, 2016
दीपावली


अब न हो अन्याय की जय, न्याय का ही छत्र हो,
लहू-पिपासु पापियों का, रात्रि हर अब काल हो,
रात अँधियारी वह जाकर, उषा-काल अब रम्य हो,
आशा की किरणें नहाए, सुनहरा आकाश हो।
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28 April, 2017
अक्षय्य तृतीया


अक्षय्य हो बल, धैर्य, शौर्य, हो क्षय हर पातकी,
हर वार हो परशु सा, हर गाथा दिग्विजय की,
हो पूजन वैभव का, भक्ति भी अप्रतिम की,
हो प्रारंभ महाकथा, किंतु शांति के महापर्व की।
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10 May, 2017
बुद्ध


भेद रंगों पंथों में न हो, सम्मान हो पावन कर्मों का,
गाए गीत हर श्वास अब, शील, मैत्री, करुणा का,
मिटे बोध से तुम्हारे, तिमिर अज्ञानी मन का,
पुनः स्मित करो बुद्ध, घोष हो शांति के पर्व का।

■ बुद्ध पूर्णिमा
          कामना है, कि द्वेष के मँडराते बादल शीघ्र हटें, और समस्त पृथ्वी सद्भावना की कौमुदी प्राशन कर तृप्त हो। 
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14 September, 2017
मज़्‌हब नहीं सिखाता


       प्रातः जागने के क्षण से ही कुमार बेचैन था। उसकी बहुधा शांत देह-भाषा में आया परिवर्तन सेवक भी सुबह की चाय देते क्षण ही जान गया था। यूँ तो समारोह सुबह आठ से प्रारंभ होना था, किंतु अतीत को पुनः जीने की आतुरता ने उसे चैन से बैठने न दिया। नाश्ता किए बिना सात बजे ही साहब पाठशाला पहुँच गए। पहले माले की कक्षा ‘ब’। मेज़, कुर्सी, बेंच, सारी चीज़ें पुरानी ही थीं। बस, काले की जगह हरा बोर्ड; यही मात्र परिवर्तन। दरवाज़े की कुंडी भी पुरानी ही थी। कक्षा में क़दम रखते ही समूचा अतीत कुमार के चारों ओर घूमने लगा।
       प्रसूति पश्चात हुए अतिरक्तस्राव सेे चंद घंटों के भीतर ही कुमार की माँ का स्वर्गवास हुआ था। माँ के बिछड़ने का घाव निश्चित ही गहरा था, लेकिन धैर्य खोकर लाभ न था। एक आँख में आँसू तो दूजे में केवल शिशु की ख़ातिर बलपूर्वक मुसकुराहट ला, नानी से लेकर सारों ने कमर कसी। सभी परिजनोंने बारी-बारी से शुरू के दो महीने तो चीज़ें सँभाल लीं, लेकिन हर किसी को अपने-अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व भी निभाने थे। अंततः पूरा भार नानी के कंधों पर आ गिरा। पूरी हिम्मत से विपदा का सामना कर, शिशु की मालिश से लेकर अन्य सभी ज़िम्मेदारियाँ नानी ने बड़ी कुशलता से निभाईं; लेकिन उसे भी अन्य लोगों की तरह ही दायित्वों से भला मुक्ति कैसे मिलती? अन्नप्राशन के पश्चात अत्यंत व्यथित हृदय से नानी ने गाँव लौटने का निर्णय लिया। सदानंद का हौसला कुछ डगमगाता देख कुमार की मौसी ने दिन के समय शिशु की देखभाल के लिए किसी महिला को नियुक्त करने की सलाह दी। कुछ जगहों पर संदेश गए। दो दिन पश्चात एक व्यक्ति ने आकर पूछा, “जी, बच्चे को सँभालने के लिए आया चाहिए ऐसा बताया किसीने।” गत दो वर्षों से उसी मुहल्ले में रहने वाले जिस व्यक्ति को सदानंद बस शक्ल से जानता था, उसे देख आश्चर्य करते हुए सदानंद ने कहा, “हाँ, चाहिए तो है .......... नाम?” “जी, मेरा नाम जावेद।” उस व्यक्ति ने कहा। सभी उपस्थितों की तुरंत तनी भौंहों की ओर जावेद का ध्यान आकर्षित होने में देर न लगी। जावेद को मायूस होते देख सदानंद ने कहा, “बाद में बताएँगे।”
       दो दिन काफ़ी सोचने के पश्चात दूसरा कोई व्यक्ति उपलब्ध होने तक सदानंदने जावेद को अस्थायी मंज़ूरी का संदेश भेजा। “जी अच्छा, बहुत मेहरबानी, आज से ही सँभालेंगे।” जावेदने ख़ुश होकर कहा और तुरंत ही पत्नी के साथ उपस्थित हुआ। जावेद की स्वल्प आमदनी को देखते हुए ख़ुरशीद ने भी सहर्ष ज़िम्मेदारी स्वीकार की। ख़ुरशीद की अपनी कोई संतान न होते हुए वह शिशु को अच्छी तरह सँभाल पाएगी या नहीं यह सोचकर सदानंद चिंतित था। सुबह साढ़े-सात बजे दफ़्तर के लिए चला सदानंद शाम को लौटने तक सदानंद के ही घर में ख़ुरशीद ने शिशु को सँभालना प्रारंभ किया। एक महीने की देखभाल के दौरान शिशु का स्वास्थ्य स्थिर रहता देख सदानंदने कुछ दिन और ख़ुरशीद को ही शिशु की देखभाल जारी रखने के लिए कहा।
       “पहले नज़र उतारो इसकी।” कुमार के पहले जन्मदिन के अवसर पर घर आई नानी ने आँसू पोंछते हुए कहा। “जी वह तो ख़ुरशीद रोज़ उतारती है, आज दोबारा उतार लेगी।” जावेद ने कहा। इस बात की ज़रा भी जानकारी न होने वाले उपस्थितों को आश्चर्य तो हुआ, तनिक शर्मिंदगी भी महसूस हुई। कोई भी आपसी रिश्ता न होते हुए, किसीके सुझाए बिना, नियमित रूप से और अपनेपन से कुमार की नज़र उतारने वाली ख़ुरशीद को सारों ने तुरंत सहर्ष स्वीकृति दी; और उसके ‘पर्मनन्ट’ होने की मुहर लगाई। साथ ही गत कुछ दिनों से मुश्किल वक़्त में कभी-कभार रसोई सँभालनेवाला जावेद ‘फ़ुल-टाइम कुक’ भी बन गया। जन्मदिन के समस्त व्यंजन दोनों ने मिलकर ही पकाए। “बहुत अच्छा खाना बनाया तुम दोनोंने।” नानी ने कहा। “जी।” दोनोंने नम्रता से सराहना स्वीकार की।
       मात्र आमदनी के हेतु से शुरुआत किए ख़ुरशीद और जावेद कुमार से कब घुल-मिल गए, स्वयं उन्हें भी ज्ञात न हुआ। उन दोनों का स्नेहिल व्यवहार और कुमार का लुभावना रूप एक दूसरे के लिए पूरक थे। कभी ख़ुरशीद का स्वास्थ्य अच्छा न हो, तब भी जावेद कुमार की देखभाल सहजता से कर लेता। दोनों के परिश्रमी और समर्पित होने की वजह से सदानंदने भी छुटफुट चीज़ों को छोड़ उन दोनों को स्वतंत्रता दी थी। नानी तथा मौसी नियमित रूप से भेंट करने आतीं। हर भेंट के दौरान कुमार की दृष्टि से विभिन्न पोषक व्यंजनों की पाकविधि ख़ुरशीद नानी से सीख लेती थी। विदा लेते समय दोनों पति-पत्नी तत्परता से नानी के चरण स्पर्श करते। नानी स्वयं के साथ-साथ ख़ुरशीद की भी नम आँखें स्वयं के पल्लू से पोंछती। रिक्षा नज़रों से ओझल होने तक दोनों निश्चल खड़े रहते थे। पहली भेंट में तनी भौंहें क्रमशः पराजित हो रही थीं।
       दिन में जावेदचाचा से ‘मछली जल की’ सीखा कुमार संध्या को बाबा के घर लौटते ही उन्हें जूते भी न खोलने देता; और उनसे लिपटकर बजरंगबली की पूँछवाली कहानी सुनाने का हठ करता। दोपहर ख़ुरशीदचाची के हाथ की बनी खीर भरपेट खाकर रात को बाबा का बनाया पौष्टिक काढ़ा किंतु बेचारा बिना किसी शिकायत के पी जाता। “पहलवान कौन बनेगा?” ऐसा बोल सदानंद बहला-फुसलाकर उसे काढ़ा पीने पर मजबूर करता, और काढ़ा पीने से हुए उसके विचित्र हाव-भाव देख ज़ोर का ठहाका लगाता। हर संध्या, बरामदे के चक्कर लगाते हुए, कुमार को थपकियाँ देकर सुलाना होता था। एक रात स्वयं के कंधे के दर्द की वजह ढूँढ़ते हुए सदानंद को एहसास हुआ, कि जिसे वह अब तक गोद में लेकर सुलाता था, वह ‘शिशु’ पाँच वर्ष का होने चला था। सदानंद ने स्नेहपूर्वक कुमार के केशों में उँगलियाँ फिराईं। दो भिन्न स्पर्शों से मिट्टी अनोखा रूप धारण कर रही थी।
       दूसरी सुबह जावेद की काफ़ी प्रतीक्षा करने के बाद सदानंद स्वयं ही कुमार को ले जावेद के घर की ओर निकल पड़ा। यूँ तो वह रोज़ सदानंद के दफ़्तर रवाना होने से पूर्व ही तत्परता से कुमार को ले जाता। जावेद के दरवाज़े का ताला देख सदानंद तनिक चिंतित हुआ। “सुबह तीन बजे ही लेकर गए।” पड़ोसी महिला बोली। सदानंद कुमार को साथ ले तुरंत अस्पताल पहुँचा। जावेद प्रसूतिकक्ष के ही बाहर खड़ा था। इन दोनों को देख वह दौड़ते हुए निकट आया और सदानंद के हाथ हाथों में ले ख़ुशी से बोला, “बेटी हुई है भाईजान!” सदानंदने बटुए के ख़ास ख़ाने से दिक़्क़त के मौक़े पर काम आने के हेतु से मोड़कर रखी हुई सौ-सौ की दो नोट निकालीं, और झिझकते जावेद की हथेली में जबरन थमाकर भावुक स्वर में कहा, “और चाहिए तो भी माँग लेना, शरमाना नहीं।” दोनों ने एक-दूसरे को दीर्घ आलिंगन दिया। यह सब देख विस्मित हुए कुमार को जावेदने प्रेम से गोद में उठाते हुए कहा, “छोटी बहन के साथ खेलोगे नं?” जावेद का घर अचानक ढेर सारे मेहमानों से खिल उठा। बेटी ने सबके होठों पर मुसकान लाई थी; इसलिए हेतुतः उसका नाम 'तबस्सुम' रखा गया। सदानंदने सगे भाई की तरह सारी चीज़ें सँभालीं और समारोह को सकुशल संपन्न करने में तनिक भी कसर न छोड़ी। कुमार को एक लुभावनासा खिलौना ही मिल गया था।
       असामान्य आकलनक्षमता और प्रगल्भ बुद्धिमत्ता का वरदान लेकर जन्मा कुमार शैक्षणिक क्षेत्र में सदैव अग्रसर रहा। बुद्धिमत्ता के साथ कठोर परिश्रम की सीख भी पाए कुमार को अत्यधिक कठिन और इसी वजह से सर्वाधिक प्रतिष्ठित मानी गई प्रशासकीय सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण करना मुश्किल न हुआ। नियुक्ति के पश्चात अल्प काल में ही फुरतीले किंतु शांत और सारासार विचारों के व्यवस्थापक के रूप में वह विख्यात हुआ। उसका कामकाज देख, उन्हीं दिनों राज्य के तीन ज़िलों में एक ही समय पर हुए सांप्रदायिक दंगों को नियंत्रित करने के लिए उसे राज्यपाल की ओर से विशेष नियुक्ति के आदेश प्राप्त हुए।
       “सर, प्रिंसिपल मैडम प्रतीक्षा कर रही हैं।” एक विद्यार्थी के कहने पर कुमार चौंककर सावधान हुआ। शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरा और तुरंत मैडम के चरण स्पर्श किए। “यशस्वी भव।” कुमार की इतिहास की शिक्षिका और मौजूदा मुख्याधापिका मैडम ने आशीर्वाद देते हुए कहा। अतिसंवेदनशील बने तीन ज़िलों के दंगों को अत्यंत प्रभावी ढंग से केवल नियंत्रण में लाने तक सीमित न रहकर, एक और क़दम आगे बढ़ाते हुए, दो गुटों में मित्रता प्रस्थापित करवाने का जोखिम भरा काम सफलता से पूर्ण कर कुमार ने समाज में अनूठा संदेश पहुँचाया था। उसके इस कार्य के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति ऐसे दोहरे पुरस्कार उसे घोषित हुए थे। उसकी विशेष नियुक्ति दो जुदा हाथों से सँवरे कुमार के लिए संस्कारों का पुनःपठन ही साबित हुई। जिन दो शिक्षाओं ने उसे सौहार्द की परिभाषा सिखाई, उन्हीं को उसने एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी होते हुए देखा था। अनुशासित और आज्ञाकारी कुमारने कभी-कभार शिक्षकों की छड़ी का स्वाद भी चखा था; किंतु उसको हुआ ताड़न उसे सख़्त और सरल मार्गों का उचित अवलंबन सिखा गया। घातक तत्त्वों को नेस्त-नाबूद करने के लिए उसने सख़्त क़दम उठाए, किंतु राह भटके लोगों के लिए वह एक संवेदनशील मार्गदर्शक बन खंबीरता से डटा रहा। हेतुतः दंगे करवाकर रोटियाँ सेंकनेवाले सत्तालोलुप तत्त्वों को उसने जाल बिछाकर बड़ी कुशलता से धर दबोचा। प्रशासकीय सेवा में नियुक्त होने वाले तो कई होते हैं; लेकिन कुमार की समर्पितता ने उसकी नियुक्ति में चार चाँद लगा दिए थे। जिस विद्यालय में उसका व्यक्तित्व विकसित हुआ, उसी पावन वास्तु के प्रांगण में आज उसके सत्कार का भव्य समारोह था। अतीत का स्मरण हो वह बार-बार भावुक हो रहा था। भाषण भी उचित रूप से पढ़ पाएगा या नहीं इस बात को सोच वह शंकित था। जिसने माथे पर मातृ-वियोग लिखने में शीघ्रता की, उसीने कुमार के ललाट पर अखंड धैर्य गढ़ने की तत्परता भी दिखाई थी। तुरंत स्वयं को सँभाल कुमार समारोह के लिए सज्ज हो गया।
       सराहना और स्नेह से ओत-प्रोत समारोह में कुमार का समुचित सत्कार संपन्न हुआ। कुमार के भाषण के पश्चात विद्यार्थियों के एक समूह ने धार्मिक एकता पर आधारित विख्यात गीत गाना प्रारंभ किया और प्रथम पंक्ति में बैठे नानी, मौसी, बाबा, ख़ुरशीदचाची, जावेदचाचा और तबस्सुम इन सारों की आँखें नम हो उठीं। कुछ ने पोंछीं, तो बाक़ी सारों ने खारे पानी को मुक्त कर दिया। कुमारने जूते का फ़ीता कसने के बहाने नीचे झुककर स्वयं के आँसू पोंछे। गत कई वर्षोंसे इन सभी के माध्यम से धर्म ने कभी आयत सुनी थी, तो कभी कीर्तन श्रवण किया था। जो धर्म शीर-ख़ुर्मा चखकर तृप्त हुआ, वही तीर्थ की बूँद मात्र से कृतार्थ भी हुआ था। कल नानी के पल्लू से तो आज चाची की चुन्नीसे उसने आँसू पोंछे थे। कभी वह चाचा की दिखाई आँखों से सहमा, तो कभी बाबा से रूठकर मौसी की गोद में जा छिपा। उस विशाल प्रांगण में विभिन्न भाषाओं में धर्म की विविध व्याख्याओं को लिखकर दिखा पाने वाले कई थे; किंतु धर्म की वास्तविक परिभाषा इन्हीं चुनिंदा नम आँखों ने जी, जानी और जीवंत रखी थी। आज पुनः एक बार वस्तुतः धर्म स्नेह-स्नात हो धन्य हुआ था।
(स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इसी ब्लॉग पर प्रकाशित मराठी काल्पनिक कथा का हिंदी अनुवाद)
(मूल मराठी कथा पढ़ने हेतु लिंकः https://jsrachalwar.blogspot.com/2017/08/blog-post_15.html)
(हिंदी दिवस विशेष)
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17 February, 2018
बहुत जान बाक़ी है बैंक घोटालों में


साँभा बोला सरदार सरदार, कई टोलियाँ आ चुकी हैं बाज़ार में,
लूट का पुराना तरीक़ा नाकाम, कॉम्पटिशन के आज के दौर में,
गाँववाले अनाज क्या देंगे ख़ाक, अकाल पड़ा है पूरे इलाक़े में,
गब्बर बोला फ़िक्र नहीं साँभा, बहुत जान बाक़ी है बैंक घोटालों में।

कालिया बोला सरदार सरदार, ताना न देना नमक के बारे में,
लंबे अरसे से खाया ही नहीं, डर है लगता मिलावट के दौर में,
आपकी दी हुई बंदूक नकली, जान जाते-जाते बची कल बैंक की लूट में,
गब्बर बोला डोंट वरी कालिया, बहुत जान बाक़ी है बैंक घोटालों में।

गब्बर ने घोटाला इतमीनान से किया, लिफ़्ट ली बसंती के ही ताँगे में,
खोज न पाया गब्बर को ठाकुर, ढूँढ़ते रहे गाँववाले पचास-पचास कोस में,
कच्ची दीवार तोड़ था भागा, साँभा-कालिया के साथ मस्त है परदेस में,
ट्वीट में उसने बस इतना लिखा, कि बहुत जान बाक़ी है बैंक घोटालों में।
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18 March, 2018
नूतन वर्षाभिनंदन


आयो बसंत परिमल, श्वास करे हर चेतन,
पलाश करता चंचल, रचा सराबोर सपन,
दानों से हर्षित हर कण, मिट्टी का महके तन-मन,
चैतन्यता वह चैत की, चपल करे हर जीवन।

वर्धन हो ब्रह्मा के अप्रतिम का, सम्मान भी,
हो पराकाष्ठा पुरुषोत्तम सी, मर्यादा भी,
हो समृद्ध विश्व, मानस निरामय भी,
कर्म हो शालिवाहन से, बढ़े साम्राज्य, शांति भी।


■ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
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09 March, 2020
फागुन


भस्म हों रिपु समस्त, मुक्त मानस हो भय से,
होलिकानल पावन हो, आहुति हर श्रेष्ठ से,
धधके हर स्पंदन अब, तिमिर नष्ट हो हृदय से,
प्रकाशमान होती हर दिशा, फागुन की ज्वाला से।

रंग चढ़ें, घुलें भी, सजे हर कण सृष्टि का,
मिले स्नेह, बढ़े भी, अंत हो कलह, द्वेष का,
कोकिल सी वाणी मधुर, बने साज़ हर श्वास का,
हृदय हर परिधान करे, गुलाल उत्कट पलाश का।


फागुन पूर्णिमा और धुलेंडी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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शब्द


कितने ही देखे रिश्ते, बिन शब्द के ही जुड़ते,
शब्द के प्रलय में कुछ, टूटते अटूट रिश्ते,
धुन झूठ की कितनी ही गाओ, पराए अपने न बनते,
क्षमा एक मौन सच्ची, न्योछावर सर्वस्व होते।
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उद्विग्न


अस्त छिड़कता अनगिनत, स्मृतियाँ जीवनपटल पर,
घनी यादों को नहीं चैन,  विरही मन को सताकर,
रातरानी की उत्कट गंध भी, मूक पीड़ा से बेअसर,
क्षमा सराबोर हुई अमृत से, पूर्व की प्रीत पराजित मगर।
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04 Jan, 2022
वात्सल्य‘सिंधु’

त्यजित शैशव को सँवारता, 'सिंधु' सा तुम्हारा वात्सल्य,

तुम्हारे शौर्य से ही सँभला, अबोध अनिकेत वैकल्य,
तुम्हारे ढाई अक्षर प्रेम के, थे करुणासागरतुल्य,
निःस्वार्थ समर्पित श्वास कहते, जीवित क्षणों के कैवल्य।

■ Sindhutai Sapkal (14 Nov, 1948 - 04 Jan, 2022)
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• सार

हर कठिनाई ने बढ़ना सिखाया, कार्यशीलता को कर चपल,

परिवर्तित भी किए लक्ष्य में, मेरे सकल जतन विश्रुंखल।

आपत्ति की रम्य श्रुंखला, उत्साहों के कवन सुनाती,
सुप्त चरणों को कर जागृत फिर, उचित पथों पर क्रमण कराती।

कभी न टूटें धैर्य व संयम, कोई गरज गर मुझपर बरसे,
शत्रु न कोई, सभी मित्र हैं, कोई न आहत हों मुझसे।

यत्न हैं मेरे पथिक व साथी, कृपा की न मुझको अभिलाषा,
प्रयास, कर्म और परिश्रम से ही, मेरे भाग्य की है परिभाषा।
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• बिरहन

उमड़ उमड़ कर बरसत नैना, करते मिलन घड़ी का सुमिरन,
बदरा घेरत चंदा बिजुरी, बह बह कर थक सूखे असुवन,
हृदय हो कंपित सोच अकल्पित, बढ़ती जावे बैरी ठिठुरन,
मुरझावे मन कर चिंता बहु, धीरज खोवे असहाय बिरहन।
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