लालच ने निष्प्रभ
कर दी, तुम्हारी निःसीम उपासना,
ऐश्वर्य की शैय्या
पर भी अस्वस्थ, अधिक की निरंतर वासना,
अमर्याद सत्ता का निष्णात
शासक, किंतु सामर्थ्य की संतत याचना,
स्वर्ण को भी निस्तेज
कर गई, अत्यधिक भौतिकवाद की कामना। १
तुम भक्त थे
किंतु, तुम्हारे अहंकार से भक्त की प्रतिमा हुई दीन,
तुम्हारे ज्ञान,
बोध, शास्त्र, कला, आज भी मूर्खता के ही हैं अधीन,
आज भी तुम्हारे
बल, अबोध व निष्पाप की प्रताड़ना में हैं लीन,
व्यर्थ बहुआयामी
व्यक्तित्व तुम्हारा, व्यस्त जो समाजहनन में हीन। २
शाप जो दिये गए थे
तुम्हें, आज सिद्ध हो चुके हैं प्रभावहीन,
तुम्हारे दुष्कृत्यों
से स्तब्ध हैं, परिभाषा व जीव हर शालीन,
तुम्हारे अनिर्बंध
वर्तन की जयजयकार, हो गई है रीति नवीन,
अप्रचलित हो चुके
हैं अब, सुनीति, सदाचार व सत्कर्म प्राचीन। ३
नाभीभेद से हुआ
तुम्हारा अंत, ढकोसला ही सिद्ध हुआ अंत में,
अनीति पर नीति का
विजय, प्रहसन सा प्रतीत होता आख्यानों में,
तुम्हारे कुकर्म
रिसते रिसते, स्थायी बन चुके हैं कुंठित समाज में,
पुनः पुनः जन्म ले
कर तुम, जीवन भरते आए हो विषवृक्ष में। ४
कल तक रंभा थी, आज कोई और है पीड़िता,
तुम्हारे पश्चात भी, अत्याचार किंतु नहीं मिटता,
विलाप व रुदन का आलेख, अविरत आया है चढ़ता,
तुम्हारी मृत्यु छल, तुम्हारे श्वास हैं शाश्वत संभवता। ५
निर्भया, हाथरस,
कठुआ, तुम ही प्रत्येक घटना के सूत्रधार,
तुम्हारे एकाधिकार
के समक्ष, धूल चाटता नाभिभेद का चमत्कार,
उपहास बन गया है
न्याय का अनुरोध, सर्वत्र अन्याय व हाहाकार,
जाने कितनी करनी
होगी प्रतीक्षा, तुम्हारे अंत से करने साक्षात्कार। ६
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