महाराष्ट्र में ‘गुढी पाडवा’, दक्षिण भारत
में ‘उगादी’ या ‘युगादी’, और अन्य कई राज्यों में विविध नामों से पहचाने जानेवाले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन कुछ देशों में ‘लाठी उत्सव’ भी मनाया जाता है। लाठी,
गुढी, पताकाएँ, पुष्पमालाएँ, तोरण इत्यादि माध्यमोंद्वारा विजय की घोषणा अथवा
विजयी समूह का स्वागत करना संभवता इन प्रथाओं का हेतु रहा होगा। नीम के फूल व कोमल
पत्ते, गुड़, हिंग, इमली, कैरी, धनियादाना, अजवायन, काली मिर्च, नमक इत्यादि
वस्तुओं से बना नैवेद्य अर्पण करने की परंपरा कई समुदायों में प्रचलित है। विविध
हितकर वनस्पति-रसों का संतुलित व नियमित सेवन निरामयता के लिए आवश्यक होने का
संदेश देना इन परंपराओं का उद्देश्य होगा। साढ़े-तीन मुहूर्तों में से एक होने के
कारण कई नए कार्यों व प्रकल्पों का इस मंगल अवसर पर शुभारंभ होता है। सृष्टि का
रूप शीघ्र परिवर्तित होने लगता है। पतझड़ अपने अंतिम पड़ाव पर होता है, और कोमल
पल्लव नूतनागमन की आहट लाता है। अनाज से लहलहाते खलिहान और पेड़-पौधों पर खिला बौर
रंगबिरंगे पंछियों के लिए ख़ज़ाना साबित होता है। विविध पक्षियों के मंजुल कल-रव से
केवल भोर ही नहीं, बल्कि पूर्ण दिवस ही कर्णमधुर हो जाता है। पश्चिमी देशों में यह
काल त्योहार के रूप में चाहे न मनाया जाता हो, लेकिन वसंत ऋतु का मनोरम उपहार लेकर
उपस्थित होता है, और आनंद की बौछार करता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ब्रह्माद्वारा
सृष्टि की रचना हुई ऐसी मान्यता है। कई लोग इस दिन आदिशक्ति का पूजन करते हैं।
रावणवध पश्चात राम का अयोध्या में आगमन और शालिवाहन ने शकोंपर पाया विजय भी इन्हीं
दिनों की घटनाएँ मानी जाती हैं। विभिन्न पौराणिक कथाएँ व जीवनशैलियों की समीक्षा
करने पर प्रतीत होता है, कि विजय का प्रतीक माना हुआ यह दिवस सुख, समृद्धि तथा
ख़ुशहाली का संदेश देकर जनमानस को आनंद से सराबोर कर देता है।
आयो बसंत परिमल,
श्वास करे हर चेतन,
पलाश करता चंचल,
रचा सराबोर सपन,
दानों से हर्षित
हर कण, मिट्टी का महके तन-मन,
चैतन्यता वह चैत
की, चपल करे हर जीवन।
वर्धन हो ब्रह्मा
के अप्रतिम का, सम्मान भी,
हो पराकाष्ठा
पुरुषोत्तम सी, मर्यादा भी,
हो समृद्ध विश्व,
मानस निरामय भी,
कर्म हो शालिवाहन
से, बढ़े साम्राज्य, शांति भी।
■ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
*****