उन दिनों मैं
नियमित युद्धाभ्यास के लिए हमारे दल के साथ राजस्थान में था। सूरज ढलते ही
रेगिस्तान में ठंडक अपना जादू बिखेरना आरंभ करती थी। जो दिन में अत्यधिक तापमान से
भयावह लगती, वही महीन रेत रात को माँ की गोद का सुकून दिलाती थी; और इन सब में
मिसरी घोलने चाँद भी आ जाता था। कभी अर्धरूप, तो कभी पूर्ण में। मीलों दूर फैली
रेत पर बिखरी दूधिया कौमुदी, टिमटिमाते तारे, और पूर्णिमा का चंद्रमा; मुझे
सम्मोहित करने के लिए इतना पर्याप्त था। मैं न जाने कितनी देर तक सृष्टि की उस
अनुपम कलाकृति को देखता; किंतु कभी संतुष्टि हुई ही नहीं।
‘चंद्रमा’ सृष्टि से जुड़ी मेरी रचनाओं की श्रुंखला की एक कड़ी है; बाक़ी कड़ियों
की तरह ही अपूर्ण।
सब कहते हैं दाग़ हैं
मुझमें, माँ नज़र उतारते न थकी,
■ शरद पूर्णिमा
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