यहाँ मिट्टी के, वहाँ
पथरीले, कभी तुम श्यामल, कभी रुपहले,
कहीं घुमावदार, कहीं
सरल तुम, मनोहर सब रूप तुम्हारे,
तुमने सुझाई, उसी तरह
हुई, जीवन की हर यात्रा हमारी,
जीवन की हर एक मोड़
पर, सँवारा तुमने बनकर प्रहरी। १
तुम्हारे समक्ष हुआ
कई बार, आक्रोश व अधिकार का हनन,
क्षणमात्र में बिखर
गया सुराज्य, अनीति का हुआ प्रस्थापन,
मूक साक्षी तुम आंदोलन
के, जिसने किया क्रांति का उद्दीपन,
तुम्हारी साक्ष से
ही पुनः पुनः, अनीति का हुआ उच्चाटन। २
तुम भी नहाए हर्षित
परिमल, किसीपर बरसे जो गौरव-सुमन,
भावुक भी हुए फूलों
की वर्षा में, सुनकर अंतिम यात्रा के कथन,
गुलाल से सजे कपोल
तुम्हारे, कहते विजय व सौहार्द के स्तवन,
कोई न जाने तुम्हारे
भीतर बसे हुए अनगिनत आख्यानों के कवन। ३
तुम भी अनायास हो आते
हो तीरथ, पंथियों के चरण स्पर्श से,
तुम्हारा चित्त भी
तन्मय करता, मृदंग मंजुल, ताशों का रव,
गुलाल सुमन के तुम्हारे
परिधान भी, प्रतीत होते हैं भक्त से,
भक्त के माध्यम से
तुम भी तो, प्रत्यक्ष दर्शन करते अनुभव। ४
तुम्हारी गोद में ही
खेलकर, स्वच्छंद झूमा मेरा शैशव,
तुम भी जीते विभोर
किशोर पल, मेरे यौवन ऊर्जित पल्लव,
अस्त के आरक्त क्षितिज
की, सँवारी तुमने संध्या नीरव,
हर पड़ाव का अनूठा अनुभव,
जीवन का है सार अभिनव। ५
ग्रीष्म में आम्रवृक्ष
की छाया, वसंत में ओढ़ा था बौर तुमने,
आषाढ की सब करते याचना,
तुम्हारे तप्त कण शांत करने,
सावन की झड़ी से सराबोर
तन को, छेड़ा हेमंत के पतझड़ ने,
तीनों ऋतुओं के अमृत
से, तृप्त किया है तुम्हें सृष्टि ने। ६
जब जब मार्ग भूला विवेक,
तुमने ही दिखाई राह पनघट की,
सावधान किया उचित मोड़
पर, वश में भी की गति आवेश की,
डगमगाने न दिया धैर्य
को, निकट थी जब जब पूर्ति ध्येय की,
होने न दिया हावी अहंकार
को, उत्तेजना में ध्येयप्राप्ति की। ७
तुम सदा रहते निडर,
चाहे जीवनमार्ग में हो कुछ अघटित,
डगमगाता न तुम्हारा
संयम, यात्रा की मोड़ोंपर अनपेक्षित,
न अप्रिय भूत से मायूस
होते, न भविष्य की चिंता कर विचलित,
तुम परिचय हो सादगी
व सरलता का, वर्तमान को जीकर संतुलित। ८
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(An adaptation of a poem from my Marathi poetry book)
# Road, Path
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