बढ़ती उम्र के साथ
जन्मदिन का आकर्षण घटता जाता है। बचपन का जन्मदिन नए कपड़े, आरती उतारना, मिठाई और
तोहफ़ा इन सब में उलझा रहता है। जैसी-जैसी उम्र बढ़ती गई, हर जन्मदिन पर वह विचारों
में उलझता चला गया। अतीत की तमाम घटनाएँ डाक्युमेंटरी की तरह उसे मनःपटल पर दिखती
जातीं। उस दिन उसने चालीस पार कर दिए थे। दिनभर फ़ेसबुक, एस.एम.एस., ई-मेल, फ़ोन
इत्यादि माध्यमों से उसे शुभेच्छाएँ प्राप्त होती रहीं। उससे अधिक उसके बेटे
उत्साही थे। इतने, कि केक भी उन्होंने उनकी पसंद का लाने को कहा था। रात्रि के
भोजन के बाद ब्रश करते वक़्त उसने आईने में झाँका, तो आईना बोल पड़ा; और वह फिर एक
बार अतीत में खो गया।
क्या समय के साथ लगभग सारी चीज़ें बदल जाती
हैं? शायद हाँ, और नहीं भी।
अधेड़ उम्र का पूरा जन्मदिन, जाने कितना कह कर गया,
संदेशों को पा मित्रों से, गीत पुराने छेड़ फिर गया,
केश पके कह गए अनमने, क्या कुछ कितना बदल है गया,
मैंने पूछा पुनः दर्पण से, यह सब ऐसे कैसे हो गया?
दर्पण बोला वर्षों पूर्व, इसी तरह तुम यहीं खड़े थे,
रूप तुम्हारे बदले देख, यों ही मुखपर प्रश्नचिह्न थे,
पात्र नए हैं, वेष हैं बदले, प्रस्तुति के अंदाज़ अलग थे,
कथानक आज भी
लुभावन ही हैं, जितने मनोरम कल वे थे।
(Select
lines from my Hindi poetry book)
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