बचपन में बारिश और भीगना अतिप्रिय था। हेतुतः
घर में रेनकोट भूलना, और पाठशाला से लौटते समय भीगना किसी युद्ध जीतने का आनंद
देता। आई-बाबा की डाँट के डर पर भी यह लालच भारी ही पड़ता। युवावस्था आते-आते अन्य
चीज़ों के साथ-साथ बारिश और भीगने की परिभाषा में भी बदलाव आया। जिनमें भीगने से
कभी प्रफुल्लित होता था, उन्हीं से भीगने में अब उत्कटता महसूस होने लगी। कभी
जिन्हें हथेली पर ले उठते तुषारों सा खिलखिलाता था, उन्हीं को अब हथेली से उछाल
किसी की स्मृति का गीत गाता था।
‘सृष्टि’ की तरह ‘बूँद’ और प्रकृति से जुड़ी
मेरी अन्य रचनाएँ भी मुझे अपूर्ण लगती हैं। परिस्थिति के अनुसार बूँदों की
प्रस्तुति चाहे भिन्न हो, किंतु अभिव्यक्ति हमेशा मनोरम ही रहती है। कामना यही है,
कि सृष्टि के प्रेम की बूँदें यूँ ही अविरत बरसती रहें।
लाल हरे और नीले
पीले, रंग जीवन में सुंदर सारे,
इंद्रधनुष की धुन
में ठुमकते, जीने के सुर प्यारे-प्यारे,
निर्मल जल बन जाते
पल में, एक बूँद में जब हों सारे,
एक बूँद में ही
मैं भिगोऊँ, विभोर करती सारी फुहारें।
■ World Water Day
(Select
lines from my Hindi poetry book)
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