मैं वाक़िफ़ हूँ
तुम्हारे ग़म से मगर, वह मुशाबा नहीं मेरे रंज से,
न मुझे इल्म तुम्हारी कोफ़्त का, मेरे जख़्म से अनजान तुम भी,
हर
लहू-ए-चाक-ए-जिगर बेख़बर रहता है दर्द-ए-ग़ैर से,
हर इश्क़ जुदा होता है, हर चोट का दर्द भी.
(मुशाबा-similar, इल्म-aware, कोफ़्त-distress, लहू-ए-चाक-ए-जिगर-ooze of wounded heart)
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