09 May, 2025

• मस्ला-ए-जंग

महज़ मुहरा हर सिपाही, बैन-उल-अक़्वामी सियासत का,
मायूस हुआ है शिकार मुद्दतों से, मुल्की दाँव-पेंचों का,
बेहिसाब बिखरी आबादी में, इल्म किसे चंद साँसें खोने का,
ग़ैरमहदूद फैले समंदर में, किसे है अफ़सोस बूँदों का.

(Select lines from my Hindi-Urdu poetry book)

(बैन-उल-अक़्वामी-internationalसियासत-politicsइल्म-awareग़ैरमहदूद-unbound)
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# War, Peace

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