26 January, 2018

• हम बुलबुलें हैं इसकी


उम्मीद कि अब न बहलेगा अवाम, चंद खारी बूँद-ए-ख़ास से,
जो कतराती हैं शहीद के अपनों के तसव्वुर में भी आने से,
उन बूँदों का भी हो ज़िक्र, महफ़ूज़ आम-ए-वतन हर जिनसे,
तवाज़ो हो लहू-ए-जिगर की भी, रंगा ज़मीं का ज़र्रा-ज़र्रा जिससे.

महज़ आँकड़ों से बहलाया जाता चमन को, वहाँ बेहोश बाज़ार सारे,
सदियाँ बीत गईं कम्बख़्त सुनते, झूठे वादों के नग़्मात सारे,
जाने कब हो आरज़ू-ए-इन्साफ़ पूरी, ख़त्म हों इंतिज़ार वह सारे,
डाल-डाल बसेरा सोने की चिड़िया का, हों अरमान-ए-अवाम पूरे.

(Select lines from my Hindi-Urdu poetry book)

(१-tears of distinguished, २-imagination, ३-common citizen, ४-respect, ५-garden, ६-unfortunate, ७-desire of justice, ८-earnest hopes of citizens)

No comments: