कपड़ों की ख़रीदारी
पूरी कर सदानंद और कुमार किताबों की एक बड़ी दुकान पहुँचे। कुमार को किसी ख़ास
इम्तिहान की पढ़ाई की ख़ातिर जो किताबें चाहिए थीं, उनमें से सिवा एक के सारी उसी
दुकान में मिल गईं। दुकान-मालिक ने कहा, कि वह शायद ही कहीं मिल पाए। “ठीक है, फ़िलहाल इन्हीं को पढ़ो,
बची हुई बाद में ढूँढ़ लेंगे।” सदानंद ने कुमार का हौसला बढ़ाते
हुए कहा। दोनों दुकान के बाहर लौटे ही थे, कि यकायक सदानंद को कुछ याद आया। उसने
उलटे रुख़ की ओर कार मोड़ी, और एक घने पेड़ की छाँव में फ़ुटपाथ पर जमी किताब की एक
छोटीसी दुकान के सामने रोकी। ‘पेपर फ़्री ऑफ़िस’ और इंटरनेट के दौर में औरों की
तरह सदानंद का भी किताबें ख़रीदना और पढ़ना न के बराबर हो गया था। कई सालों बाद वह
यहाँ लौटा था। जब तक कुमार किताबें खोजता, सदानंद दुकान-मालिक से बात-चीत करने
लगा। “गुज़ारा हो जाता है इतने में?” सदानंद ने पूछा। दुकानदार बोला,
“बस, जैसे-तैसे चल जाता है।” ऊँचे ढेरों में किताबों को
खोजना कुमार के लिए मुश्किल होता देख सदानंद मदद के लिए बढ़ा। बड़ी कोशिशों बाद
कुमार को तो किताब न मिल पाई; मगर सदानंद को कई दिनों से जिसकी तलाश थी, उस मज़्मून१
से मिलती-जुलती किताब मिल गई। “क्या क़ीमत?” सदानंद ने ख़ुश होकर पूछा।
बरसों पहले जब
सदानंद यहाँ आया करता, तब बोली हुई क़ीमत से आधी में ख़रीदने में फ़ख़्र महसूस करता
था; मगर आज तक़ाज़ा-ए-उम्र२ ने उसे मोल-तोल की इजाज़त नहीं दी। उसने ख़ुश
होकर दुकानदार को मुँह-बोली रक़म अदा की। एक मुद्दत बाद सदानंद ने कोई पुरानी किताब
ख़रीदी थी।
सादा कवर में महफ़ूज़३ किताब, सहारा थी भीड़ के तनहा पलों में,
सहलाता था अलफ़ाज़४ का
तरन्नुम५, मुआशरा६ के शोर-ओ-गुल में,
कभी मुसकुराहट,
कहीं ठहाके, दफ़अतन्७ नमी भी आई पलकों में,
जाने कितनों के
मुख़्तलिफ़८ जज़्बात, आज भी दर्ज हैं पुराने पन्नों में.
■ World
Book Day
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lines from my Hindi-Urdu poetry book)
(१-subject,
२-maturity by age, ३-safe, ४-words, ५-song, ६-society, ७-sudden, ८-various)
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