11 May, 2022

• सफ़र-ए-ज़ीस्त

आग़ोश में लिए मन्फ़ी से ही, वुजूद बनता है दरिया का,
शायद इसी कड़वाहट का तअस्सुर, हौसला देता है उभरने का.

ज़िहन में ज़हर भरा हो, तो लाज़िम है पैरवी झूठ की,
उतरती शक्ल दरअसल, कैफ़ियत कहती है मायूसी की.

ग़ैरइख़्तियारी है हर साँस की ख़ातिर, बढ़ना दर्द-ओ-उम्र का,
मरहम बनता है नफ़स, क़सूरवार भी ज़ख़्म-ए-मुस्तक़्बिल का.

बढ़ते क़दमों को खींचती, बेशुमार फैली भीड़ में,
मिल जाता हौसलाअफ़ज़ा, गाहबगाह रहगुज़र में.

सुकून का ही अक्स देखा पैहम१०, मंज़िल पाए हुए हर शख़्स में,
उनकी मुस्कानें बनी हमराह, रहनुमा भी सफ़र-ए-ज़ीस्त११ में.

कौन हुआ है आज़ाद, बंद-ए-दस्तूर-ए-दुनिया१२ से,
कौन उठा सका है चिलमन, सिर्र-ए-क़ैद-ए-हयात१३ से.

(सफ़र-ए-ज़ीस्त-journey of life, १-negativity, २-influence, ३-inevitable, ४-saga, ५-unavoidable, ६-breath, ७-wounds of future, ८-plenty, ९-occasionally, १०-always, ११-journey of life, १२-chains of rules of world, १३-mystery of captivity of life)
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