आग़ोश में लिए
मन्फ़ी१ से ही, वुजूद बनता है दरिया का,
शायद इसी कड़वाहट
का तअस्सुर२, हौसला देता है उभरने का.
ज़िहन में ज़हर भरा
हो, तो लाज़िम३ है पैरवी झूठ की,
उतरती शक्ल दरअसल,
कैफ़ियत४ कहती है मायूसी की.
ग़ैरइख़्तियारी५
है हर साँस की ख़ातिर, बढ़ना दर्द-ओ-उम्र का,
मरहम बनता है नफ़स६,
क़सूरवार भी ज़ख़्म-ए-मुस्तक़्बिल७ का.
बढ़ते क़दमों को
खींचती, बेशुमार८ फैली भीड़ में,
मिल जाता
हौसलाअफ़ज़ा, गाहबगाह९ रहगुज़र में.
सुकून का ही अक्स
देखा पैहम१०, मंज़िल पाए हुए हर शख़्स में,
उनकी मुस्कानें
बनी हमराह, रहनुमा भी सफ़र-ए-ज़ीस्त११ में.
कौन हुआ है आज़ाद,
बंद-ए-दस्तूर-ए-दुनिया१२ से,
कौन उठा सका है
चिलमन, सिर्र-ए-क़ैद-ए-हयात१३ से.
(सफ़र-ए-ज़ीस्त-journey
of life, १-negativity, २-influence, ३-inevitable, ४-saga, ५-unavoidable, ६-breath,
७-wounds of future, ८-plenty, ९-occasionally, १०-always, ११-journey of life, १२-chains
of rules of world, १३-mystery of captivity of life)
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