13 May, 2022

• ख़ता-ओ-अंजाम

ख़ता मेरा ही था शायद, गुनाहगारों से चाहा करम,
अपनों ने ही माँगा हिसाब, ग़ैरों से क्यों करें शिकवा-ए-सितम.

मेरी बेग़रज़ी और मेरे तहम्मुल, ग़लत ही साबित हुए मुसल्सल,
थी मुझमें ख़ामियाँ अनगिनत मगर, ज़माना भी कहाँ था मुकम्मल.

बलंदी का क़द नहीं होता, न होती है परवाज़ की कोई हद,
मुक़ाम किसीको नहीं होता मयस्सर, फिर भी हौसला होता है अज़हद.

हर सादगी सहती है दग़ा, शराफ़त जूझती है तौहीन से,
ख़ामोशी-ए-सदाक़त१० भी चुभती जिन्हें, क्या अंजाम हो शाइस्ता११ जबाँ से.

(ख़ता-ओ-अंजाम-fault and outcome, १-blessing, २-complaining of injustice, ३-intolerance, ४-constantly, ५-absolute, ६-flight, ७-achieve, ८-unbound, ९-insult, १०-silence of truth, ११-decent)
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